हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि | Hindi Ki Nirgun Kavy Aur Uski Darshnik Prashthbhumi

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Hindi Ki Nirgun Kavy Aur Uski Darshnik Prashthbhumi by गोविन्द त्रिगुणायत - Govind Trigunayat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विपपमधेश दर के परत्रात्‌ अनेक हम्पदायों एवं टप्सग्पद्माओं में विमस्‍्त होंचर दिन दूनी रात घीगुनी शम्नति करने लगा | इत सिझ्ात के फ्रशस्वरूप एक विशिष्ट बीद्ध संस्कृति का झदय हुआ | वेदिहन्सेकृदि के इस संस्कृति से मी शोडा कैसा पड़ा । चब तर बौद परम बलरॉन्‌ रहा शोर विश्व क॑ हर में संसार में प्रतिप्टिय रहा दब तक आार्य-संस्कृति बीद-रंछुति पे दबी री । रिम्यु पारस्परिक देप , बीडिऊ हवस और विशाठितार के झतिरक के कारण बह से बौद्ध पर्म कए पठन प्रारम्म हुल्या, तमी से आर्य-संकवि रे परामूत कर झात्मठाद्‌ रुरने क्षणी | बौदू-गिद्यारपारा के घी परदे ही वेदिक डिद्वारबारा प॑थ-दैगोपाठना को लेकर ठठ लड़ी हुए। एक-एक देंगता को लेकर एक एक हस्पदार और उसके मी अनेक उपलसादार एगिंद हुए। उस परतन-दैगोपास्ता प्रदान रुम्यहापों के नाम हुमश' गर्नपति-हग्पदाय, दर्य-सम्पदाप, शक्ति-सम्धदाय, हर और वैष्सर सम्प्रदाय हैं | इसमें प्रथम दो श्रपिक विकाल मंपा पके इसके विपरीत श्रख्िम ठीन विजय की पराह्माप्ठा पर पहुँच गये। इसक्प झाभार फ्षैकर अनेक दारानिक पतियों भौर सापु एर्प धापना सम्प्रदायों झा उदय हुआ। शैन दाशनिक पदटियों में पागुप्त, शेबठिद्धांत, दीरहैब और प्रत्यमिश-दशन बिशेष प्रक्रिद्ध हैं। साध भ्रोर घापता शम्पदायों में कपपलिक, ऋलमुख, झभारी, झोंपड, शिंगा गत एवं तामिल के रोगमकत ग्रोप ठह्लैखनीर हैं। वैप्सब दश्शंन पझथिपों में पांच ग्रज, विशिष्यादेव, देंटाहेव, देव झौर शुद्धाशेद श्रादि के नाम निर्दिप्ट कियेचा रहते हैं। हापु भ्रौर उपाउना सम्थदायों में दखिश के ऋआलग्ार भक्ति सम्यदाय, मदयणाद्री एंद सम्पदाद, बंगाल के हहबिया चोर गौसीय वैप्णद तम्पदाब, भ्राछाम दे गुराई शोर इराप्रिपा पैप्शद सम्यदाप तबा उड़ीसा के पंघत्तला धम्यदाप, मानमाव वश, दत्ताजेंप रग्यदाय विशेत्र महल्लपूर्स हैं | इनके मिभरा से उलूृद “शाहदैर? सम्यातप, शालपेग सम्पदाप, बात्मीडि सुग्यदाय मी उल्हैखनोग हैं। इस प्रषगर मप्य- बुप के भ्रारम्म दवोठे-दांते बैट्यव भरौर रोग शक्ति शिखारशाराओं कये गिविए शाझा- प्रशात्ताओं के रुप में मारदीब संस्कृति क्या बहुयुत्ती विह्रस् मुआ। शम शालताओं- पशाक्षाओं ने बौद्ध-विदारदार भर संस्ददि को करलिए करने भर पूराजूरा प्रभास डिया। बृछ चंणों में ये अपने प्रयाठ में सचण मी हुएं। वैश्य धर्म छी मस्वि-मायना महापानियों के मस्ति ठत्त से दी भ्रतुप्राणित है । शैर्ों की मठदादी अध्ति को महा मानिरों ही मठबाइ की प्रवृति से दी इन मिला था 1९ दैशदों बे रफ्पावा दौद्धों के हो * इेक्िये--परैमुप्रण् थाफ धुद्धिजम--हा » करे--पृह १०३४ से १०९ तक ६ इबोढ़, लुरोग-दारसं--द:र४ २ पड १०७ $ दृिशिया थ दो पुडेब--ओ० सरब्यर (१९६०) ' टूडिश्या घू दी पजेज--अे० छरझर--ह६ १३




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