कैवल्य शास्त्र | Kaivalya Shastr

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Kaivalya Shastr by ज्वाला प्रसाद सिंहल - Jwala Prasad Sinhal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) होता है फि दोनों दुशाओं का एकत्रित न हीना सम्भव है। यदि इसफा फारण किसी ऐसी बस्तु का अभाव है कि जिसका शरीर भी श्र के समान तत्वों से बना दो परन्तु हो घद शरीर से खतन्त्र, तो भी जीवात्मा का पृथक्‌ होना सिद्ध होता है यद्यपि उसका शरीर भी विस्तृत्व गुण से युक्त है। झौर फिर प्रथम तो मेरी सत्यता के सिद्ध करने की झआवश्य- कता ही नहीं है। ओर सव वस्तुओं फो सत्यता फा प्रमाण मुझे सम्तुए फरने बाला होना चाहिये। परन्तु मेरा “मुझ” से क्या प्रयोज्ञन है ? क्या इसका अर्थ शरीर हे जिसको में देखता ह भर जिसफो में अपना शरीर फहता 8 और जिसके अर्गों मे में मेरे हाथ, मेरे पैर, मेरा मस्तक, मेरी रीढ की हड्डी, मेरी झास, मेरे कान ऐसा अभिमान करता ह ? प्रद्यक्ष में ऐसा नही हे क्‍योंकि “यह वह चस्तुएँ हैं जिनऊफा अधिकार मुझे हे। में उनका खामी ह । इस लिये यह और में एक नहीं हों। प्रेरी उपस्थिति के स्पष्ट चिन्ह क्या है / में विचार करता ह। में सममता हु । में हस्त- व्यापार फरता ह। में स्मरण फरता ह। में अदिष्कार फरता ह। में सफटप करता ह। में देखता ह | में खुनता हू । में फरता हू इत्यादि । यदि मैं देखना व सुनना न चाहू तो मेरी झाजें नही देख सकती झौोर मेरे फान नही खुन सकते । यदि में सोना चाह तो मेरा भस्तिष्फ चिंचार नहीं कर सकता। में स्वप्स देखता हू परूतु चह विचार करना नही है। मस्तिप्क की अनिच्िित क्रिया मुझे गाढ़ निद्रा से चित रख सफती है जैसे कि कोई चडा कष्ट मेरे दाथ को दिना मेरी इच्छा के विंचलित फर देता है। इन सब में में! निर्याधित कर्ता हू। में यह फसी नहीं कहता कि मेरी आसे देखतो हैं। मेरे कान छुनते हैं । मेरा शरीर सोता हे या कि मैया मस्तिष्क विचार फरता है इत्यादि ।




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