राजपूत नारियां | Rajput Nariyan

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Rajput Nariyan by विक्रमसिंह गून्दोज - Vikramsingh Guundoj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तारामती | 17 तारामती ने कहा कि--- स्वामी, मेरी स्थिति से श्राप प्रमभिज्ञ नहीं हैं, मैं बिकी हुई दासी हैँ, कफन के पैसे मेरे पास नहीं हैं, तन ढकने को एक ही साड़ो मेरे पास है, इसमें से भ्राधी श्रपने कलेजे के इकड़े शेहित के कफन हेतु देती हूँ, झाधी से श्रपने तत को ढक कर लाज को रक्षा करूँगी ।* हरिश्चन्द्र की परीक्षा की यह अन्तिम सीमा थी; ज्योंही तारा- मती कफन हेतु साड़ी फाड़ने को उद्यत हुई, समस्त देवता वहां प्रकट हुए, तारामती को रोका, रोहित को जीवन दान दिया भौर हरिश्चन्द्र के त्याग, धय और सत्यपालन की सराहना की । अ्रनुकुला सदा तुष्टा, दक्षा साध्वी विचक्षणा | एभिरेव गुणप्रु क्ता श्रीरिव स्त्री न संशय: ॥! सदा पति के झनुकूल और सन्तुप्ट रहने वाली, दक्ष, साध्वी भर बुद्धिमती स्त्री निःसन्देह लक्ष्मो के समान होती है | “-दक्षेस्मृतति रद ज् > पर्तिहि देवता नार्या: पतिरंन्धु: पतिगुरु:। प्राणरपि प्रियं तस्माद भतु: कार्य विशेषत: 1! स्त्रियों के लिए तो पत्ति ही देवता है, पति ही बन्धु श्रं।र पति ही गुरु है । झत: उसे प्राणों की बाजी लगा- कर भी विशेष रूप से पति का प्रिय करना चाहिए । , “वाल्मीकि रामायण ([उत्तरकाण्ड, 48/17-18) % श्र > अवर्ध्या स्त्रियमित्याहुध॑र्म ज्ञा घर्म निश्चये !। धर्मन्न विद्वानों ने धर्म-निर्णय के प्रसंग में स्मियों को अवध्य बताया है । -“-वेदब्यास (महाभारत, श्रांदिपवं, 1 57,3 1) गन




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