शोकसभा | Shok Sabha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
138
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
जन्म- ११ मार्च १९३४ को बिहार में सारण जिले के अंतर्गत दिधवारा अंचल का एक गाँव- हराजी।
शिक्षा- मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि।
कार्यक्षेत्र- पहली कहानी कल्पना में छपी। पाँचवें दशक के प्रारंभ से उपन्यासों का प्रकाशनारंभ। सन 1949 में प्रसिद्ध रेडियो नाटक उमर खैयाम का आकाशवाणी द्वारा राष्ट्रीय प्रसारण।
प्रकाशित कृतियाँ-
उपन्यास- लोहे के पंख, नदी फिर बह चली, भित्तिचित्र की मयूरी, मन के वन में, दो आँखों की झील, कुहासे में जलती धूपबत्ती, रिहर्सल, परागतृष्णा, शोकसभा, प्रियाद्रोही, पुरुष और महापुरुष, पूरा अधूरा पुरुष, पैदल और कुहासा, नई सुबह की धूप, इशारा, न खुदा न सनम आदि ३६ उपन्यास।
कहानी संग्रह- ज
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्ोकसभा 25
को भी बिद्दाज हो शाया।
इमयन्ती चुपत्नाप सुनती रहीं ।
उप्र अजूतरे पर लेटे हुए लिबाकर मसिक ने भी मह बात घुनी ।
ममोहरणाल एक कप्ताकार के प्रति बरती मई अपनी उद्ारता का
एवं और सह्चा डिस्सा कहता रहा 'बहुत साल गुजर गए। दिबाकर
बाजू मीसामाजार की छड़क पर अगकर समा रहे थे! एमियों के वित के
और सबा बारह बज रहे होंगे। मैं मपनी मही पर घा। नजर मिली तो
मैंने फौरण बुसा सिया। बहू परेधान सदर भाएं। एक मोर कोनेमें से
जाकर पृष्ठा तो मालूम हुआ कि एक कर्मफूज पर पत्रास शुपए उधार
आाहूते हैं। मुहस्से में लाज के मारे किसी से रुहुत॑ सहीं बर रहा है। मैंने
सममाया---/मद्दाराज॒ पिरबी रली हुई भीड़ मुश्किस से कोई छुशा पाता
है! पर्माम ्यए में सोने का कर्णफूस हाथ से निकस जाएगा। इसे बच
ही डालिए। मेरी बात मात यए। मैं मपने भाई साहब के पास लिदा से
गया। ैसे एक सौ छियाशीस रपय म किस्ता फ्रठह कश त्या। दूसरा
दुकानदार मेरे क्षपास से एक सौ तीस से एक छलाम बमादा मही देता ।
दमयमती मे कुछ स्मरण करत हुए कहा “जी हां मब याद मा रहा
है। पर सौट कर माए, तो कहने छगे कि मीसाबाज़ार में बड़ी देर तक
अगकर-दर चक्कर समाता रहा। साहस ही लहो कि किसी दुकाम में
भुमूं। एक मित्र मिल गए। उत्होंने ही अपने भाई वे हाथ कणफूस विकभा
दिया।
“जी हां बह सैगक मैं ही हूं मनोहरसाल ।
'प्रापका महसान सूशते गहीं थे ।
“गया भब भूस्त चुके हैं ?
“मुझे वा ऐसा ही कुछ समता है।”
“महीं महीं ऐसी बात मही । कछ्ताकार इतने मकृतज गही होते ।”
दमग्रस्ती बोस पड़ीं “हां यह छो* 1”
सगोहवरतास को छया जैसे दमयन्ती से स्पंस्प कसा हो। प्रूछा “क्या
जाप बुछ और कहना चाहती हैं क्या ? ट
*जी नही भौर कुछ गही।' री
नितिन
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