अद्वैतवाद | Adwaitvaad

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Adwaitvaad by गंगाप्रसाद उपाध्याय - Gangaprasad Upadhyaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ॥ मानन वाले विरले हो हागे। पाश्चात्य देशों में बाकले, काँ दीगिल आदि ने जिस अ्द्वनवाद का प्रचार किया ई बड़ शॉकर मायावाद नहों है । ड़ + फिर भा मुझ जैसे बहुत से आत्मा रसे हैं जिनकी अद्टोतवाद ' मे सतुष्टि नहों होती । बह एक तत्त्व की खोज करते हये भी एक स आवबिक मूलतत्त्वा तक पहुँचने है । अद्र त के मानने में इनको अनक एसी श्रद्चन प्रतीत होती है. जिनका निपटारा होना असम्भव ६ | बह ससार में नानात्त्य को देखते हे. विचार करने से नानात्व के मानन पर मजबर होत हे | बह इस नानात्व से इनकार नहीं कर सकते । जिन हेतओआ से प्ररित होकर लोगों ने नानात्त को कल्पित या मिथ्या कहा है उनमें उनको हेत्वामास भलकता हैं । आप उनको दार्शनिक न कहे । वह ब्रा नहीं सानत । इनको विशेष सत्ता से इतना प्रम नहीं जितना सत्य । जा अद्ठ तवाद से संतुष्ट हे बढ़। उससे संतप्ट रहें परन्तु जा अद्न तवाद में अड़चने देखे वह इसको न मान | इस पुम्तक मे हमन इन्हों अड्चनों का बणन किया हैं। कुछ लागा का आक्षप है कि हसन शक्लुर जैस घुरंधर विद्वान का क्यों विराध किया । जिस शझ्डूर के सामने सेकड़ों वर्षो से लोग सिर अऋकात रहे उसक नचिरुद्ध लिखना ध्रष्टता मात्र है । हमारा इस विषय म कवल इतना कहना हैँ कि हम नाम के पतक्तपाती नहीं श्र स्वामी को चिह्दत्ता के सामने हम सिर कककाते है परन्तु उनके सिद्धान्तां क्रो स्वतन्त्रता प्रवक मीमांसा करना भी कत्तठ्य समम्दत हैं | हमने यहां अद्ू तवाद के भिन्न २ रूपों को मीमाँस! की है फिर भी यह नहीं कहाजा सकता कि सभी रूपों का वर्णन हो चुका । डसमारा इच्छा थी कि विशिष्टाद्र त तथा पाश्थात्य अब त के ऊपर




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