धम्म कहाणुओग | Dhamma -kahanuogo

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Dhamma -kahanuogo by मुनिश्री कन्हैयालालजी कमल - Munishri Kanhaiyalalji kamal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना : आगम कथा-साहित्य मीमांसा | [ २१ ४--सम्भूत के जीव ब्रह्मदत्त को नरक का निदान (यह कर्म-सिद्धान्त सम्भूत के जीव ब्रह्म लोकगामी की परम्परा में भेद के कारण है) ५--केवल कथानक में ही नहीं गाथाओं में भी पर्याप्त समानता है । यवा-- उवणिज्जई जीविवमप्पमायं, उपनीयती जीवितं॑ अप्पमायू, वण्णं जरा हर्‌इ नरस्स रायं। वण्गं जरा हन्ति नरस्स जीवितो । पंचालराया ! वयणं सुणाहि, करोहि पंचाल मम एत वाक्य मा कासि कम्माई महालयाईं॥ मा कासि कम्मं निरदुप पत्त्तिया ॥ उत्त० १३/२६) (जातक ४६८, गा. २०) उत्तराष्ययनसूत्र की कथा-वस्तु का गठन जातक की कथावस्तु की मपेक्षा अधिक संक्षिप्त है तथा उत्तराध्यवन की भापा भी प्राचीन है । अतः विद्वानों ने यह निष्कर्प निकाला है कि उत्तराध्ययन की यह कथा प्राचीन है, भले ही उसने इसे लोक प्रचलित बाथा में से ग्रहण विया हो । इस वथा का मूल अभिप्राय तो प्रारम्भ में निम्न जाति के लोगों को भी धर्म बौर शिक्षा या अधिवार देना था । किन्तु बाद में कथा का विस्तार होने से इसमें कई उद्देश्य सम्मिलित हो गये हैं । अरिप्टनेमि के तीर्थ में दीक्षा लेने वाले श्रमणों में श्रीकृष्ण के लघुश्राता गजसुकुमार का कथानक बहुत रोचक है । देवकी छह श्रमणों को अपने यहाँ देखकर उनकी सुन्दरता के सम्बन्ध में जिज्ञासा करती है । उसे पता चलता है कि वे उसये ही पृष्र हैं जिन्हें अपहरण कर हरिणेगमेपी नामक देव ने सुलसा गाथापत्नी को दे दिया था। इससे देवकी के मन में पुनः बादत्रीड़ा देखने की लालसा होती है । हरिणंगमेपी देव की आराधना से देवकी को गजसुकुमार नामक पुत्र प्राप्त होता है । गजसुकुमार की युवावस्था में श्रीकृष्ण उसका विवाह सोमिल ब्राह्मण की कन्या से करना चाहते है । किग्तु अरिष्टनेमि की धर्मदेशना से गजसुकुमार मुनि बन जाते हैं । तव अपमानित सोमिल ब्राह्मण द्वारा गजसुकुमार मुनि पर उपत्तगं किया जाता है । बिन्‍्तु वे मुनि उपसर्य सहन कर मुक्ति प्राप्त करते हैं ।? गजसुकुमार की यह कथा बौद्ध साहित्य में वणित यश थी प्रग्नज्या से तुलनीय है ।* एस कथा में कई कथा तत्त्व सम्मिलित हैं। यधा-- (१) हरिणेगमेपो द्वारा सन्‍्तान का अपहरण एवं प्रदान 1 (२) माता द्वारा पुप्र-प्राप्ति की आकांक्षा और उसके लिए प्रयत्न । (३) पुत्र का जन्म एवं उसका जालन-पालन । (४) धर्मदेशना द्वारा गृहस्थ-जीवन वा त्याग । (५) पूवजीवन के बरी द्वारा मुनि-जीवन में उपसर्ग । (६) उपसर्गों को सहन करते हुए मुक्ति 1 सन्‍्तान-प्राप्ति एवं उसके अपहरण के सम्बन्ध में हरिपेगमेषी नामक देव का भ साहि्य में पर्याप्त झजिय है पं डा० जगदीशचन्द्र जन ने इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डाला है ।* भगवान महावीर की जीवनी में भी यह पटना प्राप्स है । टेक १. सरपेन्टियर, 'द उत्तराष्ययनसूत्र' पु० ४५१ ल्‍्थ्त घाटगे; ए. एम. : ए पयू पेरेलल्म इन जन एण्ड बुद्धिस्ट बवर्स! नामक निदनन्‍्ध, एनज्स आए द भदारणर शोेरिषस्ट्स से नटोस्यूट, भाग १७ (१६३५-३६) ९० धम्मपह्टायुदोगो, मूछ, घमण वापषा, पृ० २३ धादि । तक 1 हर महावगा पर्द॑ज्णा छापा, नालन्दा संस्करण, पृ० १४-२६ दमा रस्दासी, ए. पे. ४4 पसाज बीत न हा 0 पर र कि फलनय। आह न्न्पुल जैन हर _कन्ककानलक न्श हु. कक दे दर नजर _4कतए+कालथ. गा “गम, €ट[० उगदाौधघरारद : ज्य जगम साय मे भारर।द रामाज हो हट




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