आदर्श साधू | Aadarsha-sadhu

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Aadarsha-sadhu by जैनाचार्य श्री विजयेन्द्रसुरि - Jainacharya Shri vijayendrasuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ५ ] में पथ्चात्ताप करता है। तथा सृत्युको समीप लाने वाला भी पीछेसे रुदन करता है, वैसे धमे-प्रिय पिताजीको भी दीक्षा की बात अरुचिकर होगी” ऐसा विचार करके गुप्त रीत्या आप भावनगर गये ।. और जगतूज्य शान्तमूर्ति श्रीमान्‌ दुद्धिचन्द्रजी महाराज के पास जाकर उपदेश श्रवण करने को बैठे । वैरागी पुरुषों के हृदयके भाव स्पष्ट माद्म होजाते हैं । आनेका कारण बिना प्रछेही; हृदयके भावको जानकरके प्रज्य श्रीद्द्धिचम्द्रजी महाराजने, सामान्य उपदेश देते हुए:-- सृत्योविंभेषि कि मुठ ! भीतं मुश्वति नो यमः । अजाव नेच गदणाति छुरु यत्नमजन्मनि ॥ १ ॥ इस इढोक की व्याख्या में आगे चठकर कहाः-- “यह मनुष्य जन्म पुनः पुनः प्राप्त नहीं होता है। बड़े पुण्य के उदय से ही यह चिन्तामणि रत्न प्राप्त हुआ है,। अब इसका ठीक उपयोग करना; यह बुद्धिमानों का कार्य है । जैसे श्रनादिकाल से सूर्य का उदय और अस्त हुआ करता है ; वैसेही यह जीव-आत्मा भी इस संसार चक्रमें अनादि कालसे जन्म और सृत्यु किया करता है। किन्तु एकदफें मृत्यु ऐसी होनी चाहिये कि जिससे फिर कभी सृत्यु होनेका समय न आवे । और यह बात तो निश्चय है द्वि-जीव अकेला आया 'है और अकेढा जाने वाला है । माता-पिता-पुन्न-ख्री तथा सारा कुटुंब पक्षीकि मेठेकी तरह इकट्े हुए हैं । जब अपना अपना समय प्रूरा होंगा, तब एकके पीछे एक चढे जायेंगे । इनमें मोह करना किस पर और नहीं करना किसपर । आयुष्य जढके प्रवाहकी तरह बड़ी शीघ्रतासे चला जारहा है । मनुष्य जानता है कि-मैं बड़ा होता हूँ, परन्ठ यह नहीं जानता है कि-आयुष्य कम हो रही है। “शरीर रोगमन्दिरम्‌” शरीर . ,रोगोंका घर है । ऐसी प्रत्यक्ष दिखाती हुई कायाकी माया में मोह रखना यह मनुष्योंकि लिये उचित नहीं है । मनुष्य अज्ञान दशासे ' यह समझता है--मानता है. कि- ' यह घर मेरा” 'यह ख्री मेरी ' ' यह पुत्र मेरा” “यह पिता मेरा” और ' यह माता मेरी” । अगर मनुष्य तत्व ' इृष्टिसे विचारे;




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