कालिदास का भारत भाग २ | Kalidas Ka Bharat Bhag 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.92 MB
कुल पष्ठ :
248
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about लक्ष्मीचन्द्र जैन - Laxmichandra jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)खिंत्रकला, भास्कर्य शरीर तक्षणकला द्श
के तीन दिरोकी एक संयुत आकृति है । हमें एक श्र भास्कर्य-कुतिका
सकेत प्राप्त होता है जिसमें कमलोंकि* मध्य रदिमयाँ विंकीर्ण करता चन्द्रमा
उत्कीणित था 1
यहाँ हमें ्रवश्य स्मरण रखना चाहिये कि भारतीय मूतिनिर्मात
दिल्पीके लिए मूत्ति उत्कीर्ण करना एक पवित्र कार्य था और प्रस्तावित
मूरततिके प्रकरणके ध्यानमें वैठने श्र व्यानमें जब उसकी कल्पना बिलकुल
जाग उठे तब उसके निर्माणका श्रारम्भ करनेका उसे शास्त्रीय झादेग था ।
णुक्रनीति* कहती है * “एक प्रतिमाका विशिप्ट गुण उसकी वह सामर्थ्य
है जिससे वह “ध्यान' तथा “योग' की सहायिका होती हैं । अत. मानव
मूतिकारकों ध्यानपरायण होना चाहिए । किसी प्रतिमाके स्वरुपकों
जाननेके लिए ध्यानके अतिरिक्त दूसरा कोई साधन नहीं--प्रत्यक्ष देन
भी ( कामका नहीं ) ।” कालिदास इस विचारको दुहराते है और
कलाकारकी श्रसफलताका कारण उसमें ध्यानका श्रभाव मानते है ( निधिल
समाधि ) जिसपर हम चित्रकलाके प्रकरणमें पर्याप्त विवेचन कर चुके हूं ।
नीचेकी पक्तियोमें मृण्मूतियोका एक मनोरजक सकेत दिया जा
सकता हैं । शकुस्तलाका पुत्र मिट्टीके रंगीन मयूर' ( वर्णचित्रिता
मण्मतियाँ मुत्तिकामयूरा ) के साथ खेल रहा है।
य्र उसके रग-वैचिन्रकी फिर श्रगसा की गई है
( दकुन्त-लावप्यमु) । प्राचीन स्थानोकी खुदाईमे हमें भ्रन्नस्य मृण्मयी
मूर्तियाँ मिली है, पक्षी श्रौर जानवरोकी श्राकृतिकी, खिलौनेके काममे
श्रानेके लिए । उनपर अक्सर लाल, काला या पीला रग किया रहता
हूँ जो प्रासगिक मृण्मयूरके “वर्णचित्रण' से भिन्न कुछ नहीं है ! मथुरा
१ पदुजानां मध्यें स्फुरन्तं प्रतिमाशश्ञाडूम् रघु०, ७-६४ २
अध्याय, ४, विभाग '४.१४७-१४५० । ३ यर्णचित्रितो मूत्तिकामयूरस्तिष्ठति
काकु०, पू० र४ रे, मूण्मयूरहस्ता वही; पृ० र४७५ भद्रमयूरः वही; पृ०
* वर्णचित्रितो वही; पृ० २४३, _शकुन्तलावण्यं वही, पृ० २४७ ।
User Reviews
No Reviews | Add Yours...