गांवों में औषध रत्न भाग - ३ | Ganvon Me Aushadhratna Vol. - Iii

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Ganvon Me Aushadhratna Vol. - Iii by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ श्री धन्वन्तरये नमः & गांवोंमें ओपधघरल तृतीय-माग“नमन न(१) पुंबाड ।सं८ चक्रमदे, मेषान्षि; दद्रघ्त, दृढवीज । हिं० पंवाड़; परमार; चकवड़ | च० चढुन्दा चाटकाटा; एडाची | पं० पंवार | म० तरोटा, टाकला | गु० कुंवा- डियो; पुंवाडियो | क० तेक्करिके, तगचे | ता० तगरे । ते० तगिरिस | मला* तकर | को० तायकिलो | अं० ०८16 (85512 ले? (02551 [018परिचयः--केसिया-यहद घ्रीक संज्ञा इस जातिको अंप्रेजीमें दी है । फीटिड-दुर्गन्धयुक्त | तोरा-सिंहाली भाषाका इस क्षुप का नाम दै। यह वषों ऋतुम निकल आता है। ऊचाई २ से ५ फीट | उत्पत्तिस्थान समशीतोष्ण कटिबन्वर्में सबेत्र | सीकपर पत्तियोंकी ३ जोड़ी होती है| इन पत्तियों की लम्बाई १ से १ इच्च | पुग्प लगभग वृन्तरहित, तेजस्वी पीले | फनी ६ से ९ इश्व लम्वी, गोल नलिकाकार इस क्षुपमें से कसींदीके समान अप्निय वास निकलती हे । औषधरूपसे इसके मूल; बीज, फूल और पानोंका उपयोग होता रहता है |सुख में--पंवाड़ रसमें चरपरा; उष्णुवीयें; लघु, सारक,; ढृदयपौष्टिक; श्वास, कफप्रकोप,; कुछ, पामा और विष नाशक हे | इसके वीज कुछ, कण्डु,दाद चिप और वातको दूर करनेके लिये विशेष प्रयुक्त होते हैंसुश्नुत्‌ संदिताकारने इसके पानोंके सागकों कफहर, रून, लघु, शीतल और वातपित्तप्रकोपक तथा इसके बीजॉको उ्नभागहर कहा है |




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