जययोधेय | Jay Yodheya

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Jay Yodheya by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्9 जय यौधेय खिन्न था । श्रज्जुकाने दौड़कर रामक्ने सिरको श्पनी गोदीमें रक्‍्खा । वच्छ वच्छ कह दो-तीन बार गिड़गिड़ानेके बाद रामने आँखें खोलीं । श्रब भी वह बहुत घबड़ाया हुआ था और उसका सारा बदन पसीने-पसीने था यद्यपि यह जाड़ोंकी रात थी । श्रज्जुका श्रौर परमभट्टारक रामको लेकर अपने श्रीगर्भमें श्ाए । राम तो खेर थोड़ी देरमें प्रकृतिस्थ हो गया लेकिन तमाल-कुझके मद्दापिशाचकी अझाँख-देखी कथाको निपुणिका कंचुकी श्रौर वामन महीनों तक कहते रहे । सारे पाटलिपुत्रमें मदापिशाचके बारेमें सैकड़ों तरहकी कथायें फैलीं । पिशाच-शांतिके लिए ब्राह्मणोंने खूब जप-होम किए परम- भट्टारक श्रौर परमभट्वारिकाने लाखों दीनार ( सुद्दर ) दान-पुण्यमें ख़च किए । चन्द्रकी बचपनकी शरारतोंकी कथाश्ओंका श्न्त नहीं है। उसका दिमाग़ हमेशा नई-नईं बातोंको ढूंढ निकालनेमें लगा रहता था । उद्यानमें बहुतसे जन्तु रकखे हुए थे ।जनमें एक रक्तमुख बानर भी था चन्द्रकी नज़र एक दिन उस पर पड़ी । फिर मुझे ले वह वहाँ पहुँचने लगा । कभी केला ले जाता कभी कोई दूसरा फल कभी कुलूपा हमारे साथ रहती श्रौर कभी दूसरी चेठी । चन्द्र दो-एक ही दिनमें खिलाते-खिलाते जब रक्तमुखके पास बैठकर उसकी पीठ पर द्ाथ फेरने लगा तो कुल्लूपा बहुत घबड़ाई । लेकिन चन्द्रने कुछ समभका कर श्रौर कुछ ॒डरा-घमका कर उसे ठीक कर लिया । दो सप्ताद बीतते-बरीतते तो रक्तमुख श्र चन्द्रकी ऐऐद्ठी दोस्ती हो गई कि बह दोनों पैरों पर खड़ा हो चन्द्रके दाथकों पकड़ कर टहलने लगा | नौकरोंसे कह कर चन्द्रने उसकी रस्सी निकलवा दी श्र झ्रब चन्द्र और दमारा तीसरा साथी रक्तमुख हो गया । उसे लिए वह दर्‌ जगद घूमता था श्र कुब्जों वामनों कंचुकियों श्रौर चेटियोंकी जान पर श्राफ़त थी | इशारा भर करना था कि रक्तमुख कुब्जेके कूब्रड़ पर सवार होनेके लिए तैयार था । श्रज्जुकाके पास गाढ़ी-गाड़ी भर शिकायत गई । चन्द्र कदता -- नहीं मेरी अज्जुका रक्तमुख बड़ा भलामानुस है जो चिढ़ाता है मुँह बनाता है या कंकड़ -प्रत्थर फैकता है उसी पर वह नाराज़ दोता है |




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