कल्प वृक्ष | Kalp Vraksh

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Kalp Vraksh by शत्रुघ्नलाल - Shatrughanlal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है? पता नहीं, किस जाति का पइ है : मे तो इयर पहुंली बार झामा हूँ । दिन में देखूंगा । कदाचितू इमली का होगा । शाम तो नहीं है, यह निश्चित है। महूमा भी हो सकता है । या फिर चरगद हो । हाँ, वागर हो होगा । भ्ौर बह मेला ? कल पता लगा- ऊगा कि मेला डरिस देवता के नाम पर लगता है। विचित्र वात है । बल्पवृक्ष ! जब से इसका जन्म हुमा, इसकी एक भी टहनी टूटी नहीं । तब तो भ्रक्षयवट कहना चाहिए । सुनता था, भ्रक्षय- बट प्रयाग में है, उसी वा भाई हो--सगा या सौतेला, वुदुभी ! मगल इसी प्रकार की वत्पनाझ्ो मे लीन ,करवटे बदलता रहा । लगभग एव घड़ी वाद वायु के भोकें बुछ प्रधिक शीतल हो गए थे। मंगल को भी भपवी था गई । उसने एक लम्बी सास छोड़कर विचार श्यूखला में विराम लगाया प्ौर निर्द्वेंग भाव से ग्राँखे मूदकर सोने लगा । वन था वातावरण धीरे-धीरे घीतल ध्रौर सुगघमय होता जा रहा था । तीसरा पटर प्रारम्भ होवे-टोने पूर्णरूप से शाम्ति छा गई । व न जुगुनन चमवते थे, न निधापद्ी बोलते थे । जैसे वहाँ वोई प्राणी रहता हो न हो । बेदस वायु थी सहरे था रही थी, बस । वह भी मीरद नि धब्द । तीसरे पहर के मध्य मंगल ने स्वप्न में देखा-- घट विशालवायं धुझ् प्वस्मात धरती में एस जाता है । डाले धौर पत्तियाँ तक लुप्त हो जाती है। उसके प्रस्तिस्व व एवं भी दिद्ध दौख नहीं रह जाता । ट्रसर क्षण जहाँ वह दूध धरती में समाया था टीक उसी स्थान पर दो स्पिन जाने बहाँ से पावर पे हो जाते है । एक री है, दूसरा पुरुप। दोनों भ्रति सुन्दर भौर तेजरवी प्रतीत होते है। डिन्तु उनके सुख पर शक प्रबार थी उदासी झयवा पीह। थी भलग है । उनमे दार्वलिपप हो रहा है । रखी बहतो है--स्वामी | 4




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