प्रिय प्रवास | Priya Pravas

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Priya Pravas by अयोध्या सिंह उपाध्याय - Ayodhya Singh Upadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १४ | हादेह॑ शलिल जलेहिं पाणिए्‌द्धि उज्ञायेडबबण काश णिशणे णालीहिसहजुबदी हिइत्थिद्याहिगन्धव्योधि अशुदेदिडाज् केहि । स्नाताहं..सलिलजलैःपानियेडद्याने उपघन कानने निषणुः । नारीमिः सह युवतीसिः स्रीसिंगन्धव इव खुदितैरजकेः । ( हृत्यशजदो मुद्दशजदा इन्दियशजदा शेक्खु माणुशे । कि कलेदि लाश्रउले तश्श पललोझओ हत्थे शिच्चले ॥ हस्तसंयतः _मुखसंयत इन्द्रियसंयतः सखलु मनुष्य? । कि करोति राजकुल तस्य परले।को हस्त निश्चलः ॥ सुच्छकटिक । यदि कहा जावे कि संस्कृतश्लोकों घर वाक्यों के चुनने में जिस सझ्यता से काम लिया गया है प्राकत के शलोक्ते झौर घोक्यों के चुनने में वैसा नहीं किया गया ता पहले ते यह तक इस लिये उचित न होगा कि प्राछत वाक्यों या इलाकों का ही अनुवाद ते संस्कृत में नोचे दिया गया हे । दुखरे मैं इस तक के समाधान के लिये कतिपय प्राछत शोर संस्कृत के मनो- हर शलोको और वाक्यों को नीचे लिखता हू । शाप उनको मिलाइये शोर देखिये कि दोनो की सरखता शर कोमलता में कितना धन्तर है । झसारे सार मतिनो सारे चासार दस्सिनो । ते सारे नाधि गच्छुन्ति मिच्छा संकप्पगोचरा | १॥ झप्पमादेन मघवा देवानं सेदतं गता। झप्पामाद परां सन्ति पमादों गरहितों सदा ॥२॥ नपुष्पगंधों पटिवातमेति न च़न्दन-तग्गर-मदिलिका वा सर्तंच गंघो पटिवातमेति सब्बादिसा सपपुर्सिपवायति॥३॥ उद्कं हि नयन्ति नेतिा उखुकारानमयन्ति तेजन । दारुनमयन्ति तच्छुका झत्तानं द्मयन्ति परिद्धता ॥४॥




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