प्रियप्रवास में काव्य , संस्कृति और दर्शन | Priyapravas Main Kabya Aur Sanskrit Darsan

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Book Image : प्रियप्रवास में काव्य ,  संस्कृति और दर्शन  - Priyapravas Main Kabya  Aur Sanskrit Darsan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ६ )] प्रस्तुत करने मे है । कहीं भी श्रापको कोई तत्सम दाब्द देखने को नहीं मिलेगा । सर्वत्र तद्भव-दब्द-प्रधान सरल एव सुबोध बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया गया है । इस उपन्यास को पढकर डा ० ग्रियसेन इतने प्रसन्न हुए थे कि इसे श्रापने इडियन सिविल-सर्विस की परीक्षा के पाठ्यक्रम मे रखवा दिया था । तढदुपरान्त हरिभ्नौघ जी ने अधखिला फूल नामक दूसरा उपन्यास लिखा । यह भी सामाजिक उपन्यास है । इसमे तत्कालीन बिलासी ज़मीदारों के नग्नरूप का अच्छा दिग्दश॑न कराया गया है । यहाँ प्रकृति-चित्रण अत्यन्त सजीव एवं मनोमोहक है तथा चरित्र-चित्रण मे शभ्रादर्शवादिता को प्रपनाया गया है । थे दोनों उपन्यास श्रौपन्यासिक कला की दुष्टि से उतने उत्कृष्ट नही क्योकि ये हिन्दी की ठेठ भाषा का नमूना प्रस्तुत करने के लिए लिखे गये थे । इसी कारण इनमे औपस्यासिक कला का तो सर्वथा झभाव ही है किन्तु फिर भी उपन्यास-क्षेत्र से भाषा सम्बन्धी प्रयोग की दृष्टि से इनका महत्वपूर्ण स्थान है । हरिश्नौध जी ने उपन्यासों के अतिरिक्त रुक्मिणी परिणय तथा प्रयुम्न विजय व्यायोग नामक दो रूपक भी लिखे। इनमे से रुक्मिणी परिणय के सवाद प्राय. श्रधिक लम्बे तथा अझस्वाभाविक है । यहाँ प्राचीन नाटूय दैली को श्रपनाया गया है । कविता के लिए ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है तथा नाट्यकला का सुन्दर रूप दिखलाई नही देता । दूसरा प्रयुत्न विजय व्यायोग भारतेन्दु बाबू के धनंजय व्यायोग के उपरान्त हिन्दी का दूसरा व्यायोग है । इसमे भागवत के शझाधार पर श्रीकृष्ण के पुत्र प्रयुम्न द्वारा दाम्बरासुर के वध की कथा दी गई है । नाट्यकला की दृष्टि से यह ग्रथ भी साधारण ही है। परन्तु रूपक-क्षेत्र मे अपनी विधा के कारण इसका ऐति- ह्ासिक महत्व है । हरिभ्नौध जी ने इतिहास तथा श्रालोचना के क्षेत्र में भी पर्याप्त कार्य किया । श्रापने पटना विद्वविद्यालय के लिए हिन्दी-साहित्य के इतिहास पर का व्याख्यान तँयार किये थे जो पुस्तकाकार रूप मे हिन्दी भाषा श्रौर साहित्य विकास के नाम से प्रकाशित हुए । इस ग्रथ मे इतिहास श्र भाषा-विज्ञान का सुन्दर सम्मिश्रण है तथा भाषा के स्वरूप उसके उद्गम एवं विकास भादि पर भ्रच्छा प्रकाश डाला गया है । सबसे बडी विशेषता यह है कि इस इतिहास-ग्रथ मे उद्दू भाषा के कवियों का भी उल्लेख मिलता है श्रौर उद्ूं को भी हिन्दी भाषा की ही एक शैली स्वीकार किया गया है। इस ग्रंथ के अतिरिक्त श्रापने रसकलस की भूमिका लिखी जो प्रालोचना-साहित्य मे




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