लाशपर | Laashpar

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Laashpar by शिवमंगल सिंह - Shaivmangal Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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च तूफानके वाद बसपनजनपलानापालरीपपारालापापपानारफाण अलनप्पपपापाटजारााग जज नाना पच्छिमसे ही नहीं है पूरव-पच्छिमका वाध तो मु्के सामनेका चाल-सूर्य करा ही रहा था पर रास्तेको पहचान सुके श्र न थी । राहके किनारे खडे पेड+ पीघे उनके वीच और बगलसे होकर गुजरनेवाले मोड़ -तोड़ ही जडडलमे रास्तेका वोध कराते हैं । यहाँ उनकी बुनियाद जड्टलका ही नाम-निशान न थी | सूखी पहाड़ियों घररही थीं । एक अजीब उलकन दिलम पेंदा राई। निसर्गकी चुप्पी सुके खलने लगी । सामने खुले मेदानमें मुझे ऐसा जान पड़ा सारी राहे खुली पडी हैं पर में उनपर चल नहीं सकता । एक क्रूरता मरे कोलाहलकी होती है दूसरी रिक्त नीरवताकी --यह मुक्ते राज जानपड़ा । सामनेकी नड्ी पहाड़ियाँ उनकी शल - सी खड़ी चोटियाँ जैसे सुझे घूरती थी । सामनेके ऊचड़ खातड़ मैदानके पीछे खड़ी ये पहाडियाँ और उनके पीछे आसमान चूमते पार्वतीय शिखरोंकी अनवण्त हिम -मण्डित शज्ला जिसपर चालारुख इस समय अपनी सोनेकी किरसें बरसारहा था मुक्ते कुछ डर-सा लगा । एकाकीपन काटने लगा । जान पडा आदमी श्रकेला नहीं वसता | सदसे श्रौर कट्रके कारणुमी एक सीमातक उसके प्यारभरे सहचर हैं । में श्रानन्द अथवा भय-जनन करनेवाले एक स्वरकेलिए ललचा गया | तत्र श्रगर शेरका समीप टहाडना भी सुनपडता तो में थिरक उठता उल्लूकी आवाज सुमे कोयलकी टेरसे झधिक श्ाक- पक जान पढ़ती श्रौर रीछका साइचर्य सुक्के मॉँगे वरदान-सा लगता । में कुछ डरनेलगा था । श्र आगे जितनादी उस प्रकृतिके खुले श्राँगनम में अपनी दृटि फलाता मेरा भयभी उतनाही गहरा होता जाता | प्रकृति मानों मेरी शोर चारो श्ोरस निगाह पसार देखती--में क्या करता हूँ । और में करता क्या एक श्रजीव तरटका डर मरे श्रड्ठोमें भीतर-ही-मीतर घर कररहा था । मेरे पाँव भारी दोचले थे । दरों उठना उनका कठिन हो रहा था । मैंने साफ जाना मीतरदी भीतर बिना बोले बिना सुने कि में डर गया हूँ श्रौर में श्रारो नहीं चद सकता उन घूरती पहाड़ियेंसि होकर । कुछ श्द्




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