हिन्दुस्तानी | Hindustani

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Hindustani by डॉ० अनिल कुमार सिंह - Dr. Anil kumar Singh

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about डॉ० अनिल कुमार सिंह - Dr. Anil kumar Singh

Add Infomation AboutDr. Anil kumar Singh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
अंक २ भारतीय संस्कृति की समकालीन व्याख्या १५ भारतीय आध्यात्म की भी मानववादी व्याख्या संभव है। अपनी द माइण्ड ऐण्ड स्पिरिटू आयु इण्डिया पुस्तक में मैंने भारतीय संस्कृति की इस प्रकार की व्याख्या देने का प्रयत्न किया है। भारतीय दर्शन और अध्यात्म का मोक्षवादी विशेष रूप में मानववादी व्याख्या के अंतर्गत लाया जा सकता है। यह देखने की बात है कि हमारे देश में विशेषतः जैन-बौद्ध विचारकों ने और कुछ हद तक अद्वैत वेदान्त ने भी मोक्ष या निर्वाण की जो व्याख्या दी है वह मानववाद के इस मौलिक सिद्धान्त के अनुकूल है कि मानव-जीवन के समस्त मूल्यों का स्रोत स्वयं मानव-प्रकृति है हमारे अनेक धर्म-दर्शनों में जीवन-मुक्ति की संभावना भी स्वीकार की गई है यह मतव्य भी हमारी आध यात्मिक परम्परा की मानववादी अंतथ्प्रेरणा को सूचित करता है। हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी आवश्यकता है परिपूर्ण जीवन की एक ऐसी इहलोक परक व्याख्या जिसमें गीता के नैष्कर्म्य कर्म एवं स्थित प्रज्ञता के आदर्श का अधिकतम कर्मठता से समन्वय हो । ऐसा समन्वय हम गाँधी जी के जीवन में पाते हैं । लेकिन गाँधी का जीवन मानवता का एक मात्र आदर्श नहीं हो सकता । किसी जाति के जीवन में नैतिक वीरता का अथवा नैतिक वीर जीवन का महत्त्वपूर्ण स्थान हैं किंतु वीर जीवन के दूसरे आयाम शी हैं। उदाहरण के लिए फ्रांसीसी संस्कृति में लेखकों और विचारकों को विशेष आदर दिया जाता है वीर जीवन के विविध रूपों की परिकल्पना चित्रण और बौद्धिक निरूपण हमारे देश की सांस्कृतिक आवश्यकता है। जन-मानस में वैज्ञानिक मनोयृत्ति को स्थापित करते हुए जातिवाद जैसी अवैज्ञानिक एवं अजनतांत्रिक प्रथाओं के उन्मूलन का हेतु बनाना हमारे बुद्धिजीवियों का दूसरा महत्त्वपूर्ण कार्य है। हर हालत में सक्षम जीवन-यात्रा के लिए यह जरूरी है कि हमारे विचारों और व्यवहार में सामंजस्य हो । खण्डित व्यक्तित्व और व्यावहारिक ढोंग की स्थिति व्यक्ति और समाज दोनों ही के जीवन के लिए हानिकारक और घातक है। रद (भारतीय संस्कृति की समकालीन व्याख्या विषयक संगोष्ठी में २६ मार्च १६७१ को पढ़ा गया आलेख ॥)




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now