तुलसी शब्दसागर | Tulsi-shabadsagar

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Tulsi-shabadsagar by डॉ भोलानाथ तिवारी - Dr. Bholanath Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अगार-श्रघात ] . अगार-(सं० झागार)-१. झागार घर धाम २. ढेर राशि ३ झगाड़ी ४. प्रथम । उ० 9. नगर नारि भोजन सचिव सेवक सखा झगार । (दो० ४७१) अणिन-(सं० अधि)-झआाग । अगिनि-(सं० अधि)-आग । उ० अगिनि थापिं मिथिलेस कुसो दक लीन्हेंड । (जा० १६१) श्रगिनिवमाऊ- [सं अधि + सामग्री (सं०) या सामान (फा०)] अभिहोत्र की सारी सामग्री । उ० झरंधती अरु अगिनिसमाऊ । (मा ० र1१८७।३) गणिले-(सं० अप्र)-१. आगे आनेत्राले आगामी २. प्राचीन पुरखे । उ० १9. न कर विलंब शिचार चासुमति बरव पाछिल़े सम अगिले प्लु । (वि० २४... अगुश्ाई -(सं० अब्र) अश्रणी होने की क्रिया सारे-प्रदशन | ० कियरउ निषादनाधु अगुआई । (सा० र।२०३।१) गुण-(सं०)-१. गुणरहित मूर्ख २. निरगुंख श्र । अगुन-(सं० अगुण)-१. निगुंण सत रज झोर तम गुणों से रहित श्रह्म २. मूखं ३. दोष । उ० १. पेखि प्रीति प्रतीति जन पर अझपुन अनघ असाथ । वि २२०) रे. झगुन अलायक झालसी जानि अघम अनेरो 1 (घि०२७२) पुनाहे-१. अगुन या नियुंग में २. अगुन था. नियुश को। उ० सगुनहि अगुनहि नहिं कट सेदा । (सा ० १191 &19) अरगुनी-[स० झ । गुण (बन) |-जिस पर गुना न जा सके जिसका वर्णन न हो सके अथाह गंभीर। उ+ऐसी अनुप कहें तुलसी रघुनायक की अशुनी गुन-गाहें । (क० ७1१9) श्रगुह्म-(सं०)-जो गुदा न हो प्रकट । अगेह-(सं०)-बिना घरबार का जिसका टिकाना कहीं न हो । उ० झकुज्ञ अगेह दिंगंबर ब्याली । (सार 91७8३) गेहा-दे० झगेह | उ० तुम्ह सम अथन मिखारि अगेटा। (सा० १1१६१।२) गोचर-एसं०)-जो इंदियों से न जाना जा सके अग्यक्त । उ० सन बुद्धि बर बानी झगोचर प्रगट कवि कैसे करे | (मा० 31३२३।२) उग्य-(स० अन्न)-मूखे बेसमक् । उ० कीन्ह कपड़ु मैं संभ्ु सन नारि सहज जड़ झग्य । (मा० 912७ क) अग्यता-(सं० अज्ञता)-अज्ञान मूखेता । उ० तम्य कृतज झम्यता भंजन । (मा० ७1३४३) श्रग्या-(सं आाज्ञा)-आदेश झाज्ञा हुक्म । उ० झग्या सिर पर नाथ तुम्हारी । (मा० 9139२) अग्याता-(सं० अज्ञात)-अनजान में न जानने से । उ० . अनुचित बहुत कहेडँ झग्याता । (मा ० १1२८३) शग्-(सं ०)-१. आगे २. मुख्य 5. एक वैश्य राजा का नाम ४. सिरा . अन्न की सित्ता का एक परिमाण जो मोर के ४८ झडों के बराबर होता है। उ० १ चली झब्र करिं प्रिय सखि सोई। (मा० 91रं२३।४) श्रश्रकृत- (सं०)-झागे का . किया हुआ पहले का बनाया हुआ | झप्रगरयं-(सं )-जिसकी गणना पहले हो श्रेस्ठ । उ० दजुज बनकशा जुं ्ञानिनामश्रगणयसू। (सा श१श्लो ०३) अप्रणो-(सं०)-अगुआ श्रेष्ठ । उ० जयतिं रुदाश्रणी विश्व- विद्यायणी । (वि० २७) . सकी झव-(स० ) १. पाप २. दुम्ख ३. व्यसन ४. कंस के अधाइ-(सं आधाण न नाक तक). तर घाउ-चृषि | ८ सेनापति का नाम । उ० 9. केहि झघ अवगुन आपनों करि डारि दिया रे। (वि० ३३) र. बरपि बिस्व॒ हरक्ति करत हरत ताप झघ प्यास । (दो ० ३०८) झवमोंचान- (स० झघ +-मोचन)-पापों का. नाश करनेवाली । उ० कीरति बिमल बिस्त-अघमोचनि रदिहि सकल जग छाई । (गी+ 919३) अवरूप-जिसका स्वरूप ही पाप हो बहुत बड़ा पापी । उ० तद॒पि महीसुर श्राप बस भये सकल अघख्प । (मा० 913०६) श्रबद्दारा-(सं० अघ न की पापों के नाश करनेवाले । उ+ गुनगाहकु सवगुन अधघहारी । (मा० र।२३८।२) ३. झयोग्य ४. जो कम न हो ४. एक रख । उ० १. अबवट-घटना-सुघट सुचट-निघटन-बिकट । (वि २३१) अवाटेत-१. असंभव र. जो हुआ न हो दे. अगर्य होने- वाला अनिवाये ४. अनुचित . बहुत अधिक । उ० १. तिन्‍्हहि कहत कट अवटित नाहीं । (सा० 1941३) रे काल कर्म गति अघटित जानी । हर राप६३।३) शरवितिघटन-असंभत्र को संभव करने ताले । उ० झघडटित- घटन सुबट-विघटन ऐसी बिरुदावलि नहीं झान की । (वि०३०) छुककर पेट भर- कर तृप्त होकर र. पूर्णतम ३. ऊबकर । उ० १. सो तनु पाइ अघाइ किये अघ । (व्रि० १९४) र. दीन सब अंगदीन छीन मलीन अबी अघाइ | (वि० ४१) श्वाई-१. प्रसन होकर तू होकर २. पूर्णतम । उ० १. गुरु साहिब अनु- कूल अघाई। (मार र२६०११)। २. जनम लाभ कई अवधि अघाई। (मा राशर।४) घाउंगो-अघा उँगा तूप्न होऊँगा । उ० धरिहें नाय हाथ माथे एहिं तें केहि लाभ अघाउँगो ? (गी० १1४०) श्वाऊँ-तुप्त हों वृप्त पाऊँ । उ० प्रभु बचनामृत सुनि न झघाऊँ । (मा० ७। पद १) अबात-अबाते तू होते। उ० देत न झघात रीभि जात पात आक ही के भो ला नाथ जोगी जब छोढर ढरत हैं । (कर ७१११३) अधघाता-वृष्त होता या लूब्र होते । उ० परम प्रेम लोचन न अघाता । (मा० दे २१२) अधाति- वृष्ति होती है वृष्ति होती । उ० चाहत सुनि-मन- अगम सुक्कत-फन मनसा अघ न कक । (वि० २३३) अवाती-वृष् होती । उ० जासु कृपा नहि कृपा श्रघाती | (मा० १२८1२) दवाने-तूप हुए। उ० भाव भगति झानंद अघाने (सार २१०८१) श्रपानो-अघाया हुआ तू । उ० लखे अघानों भूख ज्यों लखे जीति में हारि । (दो ४३) द्रघाध-सवाकर पूर्णतः | श्रचादि-झवाती हैं तू होती हैं या ठूस होते हैं । उ० नहिं अघाहि अनु- राग भाग भरि भामिनि । (जा ० १५०) ्रघादा-तृप्त होते हैं भरते हैं या भरती हैं । उ० नई पट करिं नहीं पेट उघाहीं। (मा० रार११1३) श्रयाई-वतप हो । उ० रामभगत अब अमिझ झअबाहूँ। (मा० र।२०४३1३) सवुष्टि। उ० भरत सभा सनमानि सराहत दोत न हृदय अघाउ । (वि १००) _ अबात-(सं० आघात) - चोट झाघात। उ० लात के अवात सड़े जो में कहे दर हैं? । (कर २1३)




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