सुयेनच्वांग | Suyenachvang

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Suyenachvang by जगदीशचन्द्र वाचस्पति - Jagdishchandra Vachaspati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राजचिपुव हर जाते थे। खयं सुई सप्नाट्‌ 'यांगती' के कालमें मिध्तुओंकेि भरण- पोपणका चहुन गच्छा प्रचन्ध था 1. वहां किंगतू और साइचिन प्रदनति परम विद्वान सिक्षु रहते थे जिनसे शिक्षा श्रहण करनेफे लिये दूर दूरसे भिक्षु चांगानमें आते थे । पर खुईवंशकी शक्तिके हासके साथ ही साथ जब ॒राजविप्छच मचा तो लोगोंको अपने श्राण चचाने कठिन हो गये | सब जिधघर तिघर पश्चिमक देशों को भाग गये। वहां न कोई सिक्षु रददगया था और न चहां पठन-पाठनकी कोई व्यचस्था ही रद्द गई थी। जान पड़ता था कि सब लोग कान- कूची भौर तथधागतके उपदेशोको भूल गये थे और 'सते वा प्राप््यलि स्वर्ग जित्वा वा भोध्ष्यले मद्दीम्‌'के मंत्रको पढ़कर तछ- वार्ोंकी मूर्बा साफ करनेमें प्रदत्त थे जिसे देखों वद्दी हथियार चाघे 'युद्धाय कछत' निश्चय था । न किसीको धर्मकी चिंता थी न की घर्मकथा मर धर्मों पदेशके शब्द ख़ुनाई पड़ते थे। निदान वेवारे सुयेनच्चांगको जिसका उद्देश्य चिद्याध्ययन करना था चांगानमें भी शाति न मिली । वह चुपचाप बैठकर रोटी तोड़नेके लिये नहीं उत्पन्न हुआ था और न उसका जन्म शख्र श्रहण कर देशके दित संत्राम करनेद्दीके लिये हुआ था । उसका जन्म हुआ था चिघाध्ययन करने, देश देशक्ों यात्रा करने और चिदेशसे 'घर्म-प्रंथोंको खोजकर डनके अनुवाद कर अपने देशके साहित्यके भांडारको भरने गौर घर्मका संशोधन वररनेके लिये। हद चप- चाप अपने पेटको पालनेवाव्ठा और विपन्तिके दिनको काटनेचाला नददीं था । चद्द अपना मन उदास कर अपने भाईसे बोला कि




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