महाभारत की समालोचना भाग 3 | Mahabharat ki Samalochna Bhag 3

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भंध्याय १ | जय इतिहास।.. 1३ उ85395835393855588558388393939999525999552668256666655666666685606 लर७€ ह अथे-- क्रोध रहित उत्साह रहित पराक्ष रहित और श्ुकों खुष करनेवाले इस प्रकारके पुत्रकों कोनसी भी खरी उत्पन्न न करें ॥ हे० ॥ हे मा घूमाय ज्वलाध्त्यन्तमाक्रम्य जहि छान्रचान्‌ | धर ज्वल सूर्घन्यमित्राणां सुहूतेमपि वा क्षणस्‌ ॥ ३१ ॥ अस्वय- मां धूमाय अलन्ते उप शात्रमान्‌ आकम्य जहि अभित्राणां मूर्धेनि मुहूत क्षण आप था ज्वठ ॥ हैरै ॥ अर्थ- केवल धूवां ही उत्पन्न न कर अत्यन्त प्रकाशित हो ओर शत्रुओं पर इमला करके उमका नाश कर । शत्रुओंके सिरपर घडीमर अथवा क्षणभर भी जता रह ॥ हेरै ॥ मावाथे - लिस प्रकार घृवों उत्पन्न करनेवाठा अभि निकम्मा है उसी प्रकार आठसी मनुष्यका जीवन व्यथ है । खुली ज्याठासे जलने बाला अभि प्रकाशनेक कारण अच्छा होता है उसी प्रकार यशस्वी उद्यमी पुरुपद्दी श्रेष्ठ होता है। घड़ी मरमा क्या न नि रंतु मनुष्यको उचित है कि बह अपने शजुओंका पराज्य करे ओर उनके सिरपर प्रकाशित रहे और ग्रश्नका भागी बने । एतावानेच पुरुषों यदमपी यदक्षमी । क्षमावाज्िरमपश्च नेव स्री न पुनः पुसान्‌ ॥ है ॥ ) ] ) ) | ) ह ) ) | 1 अन्वय- एताधानव पुरुप। यह अमपा यह अक्षमी । क्षमाव्रानू निरमप नि ख्री ं | ) ) | ) ) । ] पुन न पुमान्‌ ॥ रे९॥ क क जे - बही पुरुष है जो क्रोधी ओर क्षमा न करनेचाला हो । जो शमा करता है र क्रोघशुन्य है वह. न तो ख्री है ओर नाही पुरुप हैं ॥ हे९॥ भावार्थ- जिस मलुष्यें शन्नुके विषय क्रोध होता है और जो शन्नुको कभी शमा हीं करता उसीकों पुरुष कहते हैं । जो अपने नाश करनेवाठे शब्ुको भी क्षमा करता है और अपने घात करनेवाले पर भी क्रोध नहीं करता बह ख्री-भी नहीं और पुरुष तो . निश्यसे ही नहीं । फिर वह कोई तीसरा हों होगा | सन्तोषो वे श्रियं हन्ति तथाध्वुक्रोश एव च अनुत्थान मये चोभे मिरीहो नाध्शुते महत्‌ ॥ हरे ॥ अन्वय।- सन्तोप तथा अनुक्रोश एवं श्रियं हन्ति ये च उम अजुत्थानभय । निरीह। मत न अश्वुवे ॥ ३३ । अर्थ-संतोष दया ये दो धनका नाश करते हैं । इसी प्रकार चदाई न करना आ थे भी ऐश्वर्यके नांशक हैं । निरिच्छ पुरुष श्रेष्ठ पद़को शत नहीं होता है || ३३ ॥ पर 99999%93क993€ए८४९९६६६क९७७७ 99996९€९७€९९९६६९७७७७७०७३० छरूसकरूउरद ते 21 क्ेऊि




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