सन्ध्या राग | Sandhya Raag

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कृष्णराव - Krishnarav

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सिद्धगोपाल - Siddhgopal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो... आठ ही दिन में रावसाहब बहुत कमजोर हो गये । खान-पान में उनकी रुचि कम हो गई । मन में कोई चिन्ता रखकर भीतर-ही- भीतर खिन्न रहने लगे । बीच के हाल में टहलते रहते । खड़े-खड़े उनको अपने शरीर की सुध-बुध न रहती । शामण्णा यह सब देखते पर अपने-आप ही बात शुरू करते डरते । रावसाहब का स्वभाव कोई बात छिपाकर रखने का नहीं । ऐसी हालत में जब वे अपने- आप कुछ न. कहकर आठ-दस दिन से चुप हैं तो शामण्णा डरतें थे कि में ही पहल करके पूछू तो यह अनुचित हस्तक्षेप होगा । किन्तु रावसाहूब की हालत करुणाजनक थी । उनकी आँखों में दिखाई देने वाले दुःख को देखकर हर किसी को उन पर तरस आता । अन्त में शामण्णा ने अपना दिल मजबूत किया । उन्होंने सोचा कि यदि राव- साहब ने अपने दुःख का कारण कहा तब तो अच्छा ही है । और यदि न कहकर मुझको दो-चार खरी-खोटी भी सुनाई तो उससे मेरी कौन-सी बेइज्जती हो जायगी । और यह निदचय करके वे बीच के हाल में आकर खड़े हो गये । दो-तीन बार शामण्णा को वहाँ खड़ा देखकर भी रावसाहब चुप हो रहे पर दामण्णा के वहाँ से हटने का कोई लक्षण दिखाई न दिया । तब रावसाहब ने ही बात शुरू की शामण्णा क्यों आये हो ? क्या खबर है ? यही पूछने के लिए आया हूँ । मैं आठ दिन से देख रहा हूँ । अब रुक नहीं सकता । क्या बात हैं यह पूछने के लिए आया हूँ । रावसाहब ने लम्बी साँस ली ।




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