सहचर है समय | Sahachar Hai Samay

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Sahchar Hai Samay by रामदरश मिश्र - Ram Darash Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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14 / सहचर है समय जूझते थे । एक अजीब अपमान झिड़ की आत्मट्टीनता से पीड़ित ये लोग दिन ढोते थे ? आंखों में एक सीलन-भरा सन्नाटा अंटा होता था । तिस पर मालगुजारी के लिए कुक अमीन का दौरा लगान के लिए जमींदार के सिपाहियों का उत्पात दारोगा जी का आतंक क्जें की वसूली के तकाजे सरकारी चंदे पटवारी जी की भेंट कुलगुरुजी का आगमन लड़की की बिदाई तर-त्योहार अतिथि-सत्कार मृत्यु-सबंधी औपचारिकता घरम-करम न जाने कितनी जोंकें थीं जो इन्हें चूसती थी । मैंने न जाने कितने ददद देखे हैं भोगे हैं इस परिवेश के । अभावों की कितनी ही अ।वाजें मैंने सुनी है। न जाने इनके कितने बिब मेरे भीतर बसे हुए हैं--निजी संदर्भो के भी और सामाजिक संदर्भो के भी । कुक अमीन आया है । जो लोग मालगुजारी नह्दी दे सके हैं वें भाग रहे हैं अपने बल उनके यहां बांध रहे है जो मालगुजारी दे चुके हैं । लेकिन कब तक चलेगा और किस-किस के साथ चलेगा । दो-चार आदमियों के यहां कितने भोरू-बैल बांधे जायेगे । लोग हाथ जोड़े कुक अमीन के आगे खड़े हैं मुहलत मांग रहे है डांट-फटकार सह रहे है उनके बेल लाकर इकट्ठे कर दिये गये हैं लोग घर की रही-सही लेई-पूंजी ले-लकर दूकानदारों के यहां भाग रहे हैं जुर्माना देकर बेल छुड़ाये जाते हैं। वह देखिए लाठी लेकर जमींदार के सिपाही खोज रहे हैं और लोग लुक-छिपकर भाग रहे है । कुलगुरुजी को भी आना था घोड़ी टिकर्टिकाते हुए भा गये अब कीजिये उनका स्वागत-सत्कार और दीजिए बिदाई। कोई नया-नया रिश्तेदार रिश्तेदारी करने आ गया है इसे भी यही वक्‍त सूझा । घर पर कुछ खाने को होगा नहीं सोचा चलो दूसरों के भरौसे ही जियो । भब इसके लिए बढ़िया चावल लाओ दाल लाभो गेहूं का आटा लाओ घी लाओ या तो उधार लाओ या खरीदकर लाओ । घर मे क्या रखा है घर में मुश्किल से एक वक्‍त आधा पेट खाना मिल रहा है । लड़कियां बथुए का साग खोंटकर लाती है साग में दो-चार दाना कोदो-सांवां का भात मिलाकर खा लिया जाता है और दो लोटा पानी पी लिया जाता है। कभी शकरकन्दी से कभी मबके के भूजा से काम चल जाता है। भइयादूज के दिन पटवारी भइया एक-एक दोनिया चीनी बांटते है और दो-दो रुपये की भेंट लेते है बंधा हुआ है। कोई नही देगा तो बह जाने । ऐसे ही हर जोंक अपने हिस्से का खून चूसती है। इस बात का खयाल किये बिना कि इसके शरीर मे खून बनता भी है या नहीं । अभावग्रस्त चेहरों की लाइनें ही लाइनें । आंखों में सुनापन तन पर फटे कपड़े । हरिजन तो भागकर चंपारण चल जाते हैं वहां धान की कटाई करने लेकिन निम्न- मध्यवर्गीय लोग कहां जायें ? काफी घरों के लोग बाहर कमाते है--कलकत्ते में रंगून मे सिंगापुर में । लोग बाहर से आने वाले मनीआडर का इंतजार करते है--पेट भरने के लिए कर्ज भरने के लिए । दो-चार लोग तराई में भीख मागने चले जाते हैं कुछ लोग चेलान कुछ लोग पुरोहिताई करने निकल जाते हैं । अभाव की एक अजीब गंध बाहर-भीतर फैली है। मैं बाहर-भीतर की एक गंघ की गहराई से गुजरा हुं लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है जो ज्यादा महत्व का है। अभाव के कीड़े-मकोड़ों के दंश से तड़पते




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