दोहा - कोश | Doha-Kosa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है सफलता पाई । ७०४ ई० में बुखारा-बौद्ध विहार के कारण पड़े इसे नामवाले महानगर-को श्रन्तिम संघर्ष के वाद आत्मसमर्पण करना पड़ा और बह झरागे चलकर बौद्ध की जगह इस्लाम की काशी बना । ७१४ ई० में पूर्वी तुकिस्तान में भी इस्लाम की विजय-वैजयन्ती पहुँच गई जब कि काशगर और खुतन ने घुटने टेक दिये श्रौर संकड़ों वर्षों से बौद्धघर्म- प्रधान इस देश के हजारों संघारामों को लूटकर नष्ट कर दिया गया भारी संख्या में भिक्षु तलवार के घाट उतारे गये । यह सारी घटनाएं भारत के बौद्ध आचार्यों के लिए श्रपने सामने घटित-सी मालूम होती थीं । भारत में पाल राष्ट्रकूट श्ौर प्रतिहार भ्रपनी स्थिति को दृढ़ और परिसीमित करने में श्राठवीं सदी के श्रन्त में सफल हुए जब कि सरहपाद शायद इस दुनिया में नहीं रह गये थे । पर इनके समय में ही मगघ ने उत्तरी भारत में प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिया था । गोपाल ने सरहपाद के सामने ही ७६५ ई० के करीब पाल-वंश की स्थापना की । वह बिल्कुल साधारण कुल का झ्रादमी था जो श्रपनी योग्यता श्रौर सर्वेप्रियता के कारण पूर्व-भारत का अधीश्वर बताया गया । उसके पुत्र धर्मपाल ने तो एक बार मालूम हुआ हर्षवर्धन के प्रताप को दुहराके रहेगा । पर राष्ट्रकूट और प्रतिहार उसके रास्ते में बाधक हुए । अरबों को आगे बढ़ने से रोकने में पाल-वंश का उतना हाथ नहीं था जितना कि उसके दोनों प्रतिद्वन्द्यियों का । गोपाल धर्मपाल का राज्य झरव-साम्नाज्य की सीमा से बहुत दूर पड़ता था इसलिए वह बहुत पीछे ही इस्लाम के आक्रमणों की श्राखेट-भूमि बना । तो भी मगध-भूमि बौद्धधर्म का केन्द्र थी वहीं बड़े-बड़े बौद्ध-विद्या-कन्द्र थे जहाँ दूर-दूर के विद्यार्थी ही पढ़ने नहीं श्राते थे बल्कि जहाँ के विद्वान्‌ धर्म-प्रचार के लिए नाना देशों में जाया करतें थे । सरहपाद के दर्शन के परम गुरु महानु विद्वान्‌ शान्ति रक्षित स्वयं इसी उद्देश्य से तिब्बत गयें और वहीं अपने बनवायें तिब्बत के सर्वप्रथम संघाराम-समू- अपना शरीर तिब्बती सम्राट (श्री ख्रोड दे-चुनू (७५५-७५८० ई०) के राज्यकाल में छोड़ा । इस प्रकार मगध का बौद्ध जगतु सें घनिष्ठ संबंध होने के कारण वह सभी बातों से श्रवगत था। यहाँ यह बात भी स्मरण रखने की है कि. पाल-राजा अन्त तक अपने को परम सौगत घोषित करते रहे ।




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