महाभारत सार | Mahabharat Sar

Mahabharat Sar by वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महाभारत-सार .. १४६ अपना वास्तविक रूप धारण कर एक कंदरा में घूस गया । उत्तंक भी तक्षक के पीछे-पीछे वहाँ गया । वहाँ उत्तक ने नागलोक का दशंन किया और नागराज की स्तुति करने लगा । इस पर प्रसन्न हो नागराज ने उत्तक को वे दोनों कुण्डल दे दिये। उत्तक ने आश्रम में पहुँच गुरुपत्ती को प्रणाम कर वे कुण्डल भेट किये । इस सफलता पर गुरुपत्नी ने उत्तक को अनेक आशीर्वाद दिये। तदनन्तर उत्तक ने गुरु को प्रणाम किया और जो दृश्य मागं में देखे थे उनके बारे में जिज्ञासा की । गुरुजी ने कहा-वत्स जो दो स्तियाँ तुमने देखी थी वे घाता ओर विधाता थीं । काले ओर सफेद तंत्र रात और दिन थे जिसका वे कपड़ा बुन रही थी । बारह आरो से युक्त चक्र को जो छः कुमार घुमा रहे थे वे बारह मट्दीने और छ ऋतुए थीं । सवत्सर ही वह चक्र था। जो पुरुष तुमने देखा वह इन्द्र और अरव अग्नि थे। मांगें में तुमने जो बेल देखा वह गजराज ऐरावत था । तुमने बेल के लिस गोबर को खाया था वह अमृत है इसी- लिए तुम नागलोक मे जाकर भी मरे नहीं । भगवान इन्द्र मेरे सखा हैं । यही कारण है कि तुम दोनों कुण्डल लेकर यहाँ लौट सके हो । उत्तंक तुम अपने कार्य मे सफल हुए अतः अब अपने घर चले जाओ । उत्तक तक्ष क से प्रति शोध लेने की इच्छा से हस्तिनापुर गया और राजा जनमेजय से बोला--राजन्‌ तुम आवश्यक कार्य को छोड अज़ानवद दूसरा ही कार्य कर रहे हो। नागराज तक्षक ने आ पके पिता की हत्या की है अत. आप उस दुरात्मा सर्प से प्रतिशोध /लीजिये। जो सपं-यज्ञ धर्म-शास्त्र में लिखा है उसका अनुष्ठान करने का यह उचित अवसर है । यद्यपि आपके पिता धर्मात्मा परीक्षित ने उसके प्रति कोई अपराध नहीं किया था तो भी इस दुष्टात्मा सपं ने उन्हें डंस लिया जिससे वे काल के गाल में चले गये । कश्यप नामक एक वेद्य आपके पिता की रक्षा करने भा रहे थे किन्तु इस पापाचारी ने उन्हे संतुष्ट कर लौटा दिया ।




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