हास परिहास | Haas Parihaas

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Haas Parihaas by अरुण कुमार मिश्र - Arun Kumar Mishra

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अरुण कुमार मिश्र - Arun Kumar Mishra

Add Infomation AboutArun Kumar Mishra

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
हास-परिहास कहा श्रौर सुनाया-- इस कुकर की दाल यहाँ नहीं पकने की । कहीं श्र चलो | दोनों दिल श्रौर कुकर लटकाये बाहर निकले । बाहर निकलते ही मैं बोला देखा श्राखिर में खुला । इसके बीस रुपये देना चाहता था । सौ प्रतिशत लाभ | नमिता ने सुभाया तो कया बात है । दुकानें तो बहुत हैं । हम दोनों बाज़ार में साइन बोडे देखते चले जा रहे थे । हमददे दुकान -- पुरानी चीज़ों को बेचते खरीदते हैं । नाम पढ़कर ही बड़ी सान्त्वना मिली | नमिता बोली तुम जाकर इसे बेच श्राश्रो । मैं सामने कपड़े की दुकान पर मिलुँगी। में धड़कते दिल से आ्रन्दर घुसा । काउणटर पर खड़े आदमी ने पूछा-- कहिये ? जैसे पुलिस स्टेशन पर रपट लिखबवाने वाले से पूछा जाता है | मैंने कुकर काउणटर पर रख दिया । बोला यह कुकर हे । च्छा । बिल्कुल नया सा है । फिर |? पे इसे बेचना चाहता हूँ । उसने श्रन्दर श्रावाज़ लगाई-- रफीक मियां ।? चश्मा पहने एक सज्जन बाहर निकले । उन्होंने चश्मा जो श्राँख की बजाय नथनों पर लगा रखा था नाक पर ठीक बिठाया । क्या है साहब ? यह बाबू जी हैं | उन्होंने चश्मे में से मुे घूरा ।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now