पृथ्वी का इतिहास | Prithvi Ka Etihas

Prithvi Ka Etihas by सुरेन्द्र बालुपुरी - Surendra Balupuri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला प्रकरण प्‌ दिन एवं दूसरे साय के अस्थकार को हमने नाम दिया है राति। थ्वी पश्चिम से पूर्व की ओर घूमती रहती है जिससे हमें अतीत होता हू कि मूर्प ही पूरब से परिचम की ओर चलता रहता है। पृथ्वी के किसी एक स्थान पर सुय से हमारे प्रयम साक्षात्कार की बेला से लेकर दुबारा साक्षात्कार होने तक के वीचवाले समय को-- अर्थात्‌ जितनी देर्‌ में पृथ्वी अपने वृत्त पर एक वार पूरी चक्कर काट ले उननें समय को--हूंम कहते है एक दिन एवं सूर्य के चारों ओर एक बार प्रदक्षिणा करने के समस्त समय को कहा जाता हैँ एक वर्ष ।. मिनट घटा दण्ड पहर इत्यादि हमने समय के विभाग कर लिये हैं अवष्य किस्तु यह सारी गणना उत्पन्न हुई है इसी सूर्य- प्रदर्षिणा की किया से क्योंकि उन सबके मूठ में इपी वर्ष और दिन की व्यवस्था है । एवं इस किंपा के साथ हमारी व्तभान जलवाप का योग भी कंस नहीं है। जिसे प्रकार थोड़ी टेर तक चर्ककर खाने के वाद सर घूमनें के कारण मनुष्य के पैर व्यवस्थित ढंग से दाहिने-दाये बड़ने लगते है पृथ्वी भी उसी प्रकार थोडा राह से डिंग जाती है। फल यह होता है कि सूर्य का तिकटतम विन्दु कभी भी पृथ्वी के एक ही भाग के सामन नहीं पडता + चलते चकते पृथ्वी का जो भाग जब कभी सूर्य के पास आ पड़ता हे तब उसी भाग में अधिक गर्मी पड़ती है और दूसरे भाग में सर्दी पड़ती हू। किन्तु इसकी भी एक निर्दिष्ट सीमा है। सूर्य की उत्तर दिशा में क्षण-भर को जाते जाते पृथ्वी दूसरी दिला में दुल जाती है तक उसके दक्षिण में गर्मी बढ़ जाती हैँ अर्थात्‌ उस भाग से सूर्य सबसे अधिक निकट पड़ता है। यह जो दक्षिण-उत्तर में सुर्य-रदिमयों की पहुँच की सीमा हूं इसके आस-पास के स्थान को हम सातिशीतोष्णसण्डल कहते ह। इस भाग में रहना ही मनुष्य के लिए सबसे अधिक सुखद होता है। सर्मी-सर्दी आदि में परिवर्तन होने के बावजूद भी साधारणतथा वायूमण्डल कहुत अच्छा रहना है । इसके परे जो भाग है उसे कहा जाता है--हिंममण्डल । वहाँ के लोग सूबे को कभी भी समीप नहीं पाते हैं जिससे उन्हें बारहों महीने कड़ी सर्दी और बर्फ के वीच रहना पन्नू तप




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