कायाकल्प भाग 1 | Kayakalp (bhag - I)
श्रेणी : कहानियाँ / Stories
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.18 MB
कुल पष्ठ :
200
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया। उनक
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कायाकल्प श्र और उनका इंतजार करती । अब उसे उनसे श्रपने सन के भाव झकट करते हुए संकोच न होता । वह जानती थी कि कम-से-कसम यहां उनका निंरादुर न होगा उनकी हँसी न उडाई जायगी । ठाकुर हरिसिवक सिह की आदत थी कि पहले दो-चार सहीनोां तक तो नोकरों का वेतन ठीक समय पर दे देते पर उयो-ज्यो नौकर पुराना होता जाता था उन्हें उसके वेतन की याद भूलती जातो थी । उनके यहाँ कई नौकर ऐसे पढे थे जिन्होंने बरसो से वेतन नहीं पाया था । चक्रघर को भी इघर चार महीनों से कुछ न सिल्ा था । न वह श्राप ही-्ाप देते थे न चक्रघर संकोच-वश मोगते थे । उधर घर मे रोज तकरार होती थी । सुन्शी घज़घर बार-बार तकाजे करते सुँकलाते-- [गते क्यो नहीं ? क्या मुंह से दष्टी जसाया हुआ है या काम नहीं करते लिहाज झले श्रादमियों का किया जाता है। ऐसे लुच्चो का लिहाज नहीं किया जाता जो सुफ्त से कास कराना चाहते है । आखिर एक दिन चक्रघर ने विवश हो ठाकुर साहब को एक पुरज़ा लिखकर ध्रपना वेतन सोंगा । ठाकुर साहब ने पुरजा लोटा दिया--व्यर्थ की लिखा-पढ़ी करने की उन्हें फुरसत न थी श्रौर कहा - उनको जो कुछ कहना हो खुद श्राकर कहें । चक्रघर शरमाते हुए गये श्रौर बहुत कुछ शिष्टाचार के बाद रुपए सागे । ठाकुर साहब हँँसकर बोले --बाह बाबूजी वाह । आप भी झच्छे मौजी जीव है चार महीनों से वेतन नहीं मिला और छापने एक बार भी न मांगा । अब तो पके पूरे १२०) हो गये । मेरा हाथ इस वक्त तंग है । जरा ढस-पाच दिन ठहरिये । झापकों महोने-सहीने श्रपना वेतन ले लेना चाहिये था । सोचिये सके एक मुश्त देने में कितनी असुविधा होगी खेर जाइये दस-पोच दिन में मिल जायेंगे । चक्रघर कुछ न कह सके । लौटे तो सुख पर घोर निराशा छाई हुई थी । आाज दादाजी शायद जीता न छोडेगे । इस ख़याल से उनका दिल कोपने लगा । सनोरसा ने उनका पुरजा झ्पने पिंता के पास लें
User Reviews
No Reviews | Add Yours...