कबीर साहेब का साखी संग्रह [भाग १ तथा २] | Kabir Saheb Ka Saakhi Sangrah [Bhag 1 & 2]

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Kabir Saheb Ka Saakhi Sangrah [Bhag 1 & 2] by कबीरदास - Kabirdas

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कबीर या भगत कबीर 15वीं सदी के भारतीय रहस्यवादी कवि और संत थे। वे हिन्दी साहित्य के भक्तिकालीन युग में ज्ञानाश्रयी-निर्गुण शाखा की काव्यधारा के प्रवर्तक थे। इनकी रचनाओं ने हिन्दी प्रदेश के भक्ति आंदोलन को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। उनका लेखन सिखों ☬ के आदि ग्रंथ में भी देखने को मिलता है।

वे हिन्दू धर्म व इस्लाम को न मानते हुए धर्म निरपेक्ष थे। उन्होंने सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास की निंदा की और सामाजिक बुराइयों की कड़ी आलोचना की थी। उनके जीवनकाल के दौरान हिन्दू और मुसलमान दोनों ने उन्हें अपने विचार के लिए धमकी दी थी।

कबीर पंथ नामक धार्मिक सम्प्रदाय इनकी शिक्षाओं के अनुयायी ह

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गुरमुख का ंग ५ जा के हिखे गुरु नहीं, सिंप साखा की सूख । ते नर ऐसा. सूखसी, ज्यों बन दाका रूख ॥२र२॥ सिप सांखा बहुते किये, सतयुरु किया न मिच । चाले थे सतलोक. को, चीचहिं चटका चित्त ॥२३॥ गुरुपख का अंग गुरुपुख शुरु त्रितबत रहै, जैसे , मनी. शुवंग । कहे कबीर बितरे नहीं, यदद युरुमुख को अंग ॥ १ ॥ गुसुमुख शुरु चित्तवत रहे, जैसे साह. दिवान । छोर कबीर नहिं देखता, है वाही को यान ॥ २ १ गुरुखुख शुरु श्रान्ना चलै, छोड़ि देह सब काम । कहे कंबीर गुरुदेव को, तुरत करे. परनांग ॥ है ॥ उलडे ' सुखद . बचने के, सिव्य न माने हुब्ख । कहे क्ीर संसार में, सो किये शुरुमुक्ख ॥ ४ ॥ मनसुख का झंग सेवक-छुची .... - कहादहे, सेवा में दृढ़ नाहि। कहे करीर सो. सेवका, लख चौरासी जाहिं ॥ १ ॥ फूल कारन सेवा करे, तजे न मन से काम । कहे कंबीर सेवक नहीं, दे चौगुना दाम ॥ २ सतयणुरु सबद उलंधि के, जो सेवझू कहि' जाय : जहाँ जाय तई काल है, कद कबीर समुकाय ॥ हे ॥ गुरू बिचारा कया करे, जो िष्ये माहीं चूक भाव ज्याँ परमोधिये, वास बजाई फकि॥ ४ १ मेरा सुक में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तोर। तेरा तुक को सेौंपते, क्या लागेगा.. मोर ॥0 ४ ॥




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