महाभारत में सांग्रामिकता | Mahabharat Men Sangrammikta
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9.11 MB
कुल पष्ठ :
460
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)13 (युद्ध कला) यह लेना ही उपयुक्त होगा । मैंने भी इस गुरुतर-भार को इसी रूप में करना चाहा । ध्रपते पथप्रद्शक से गहन विचार-विमर्श कर मैंने भपने विषय का उपयुक्त रूप में संशोधन कराने हेतु रूपरेखा के साथ पुनः विश्वविद्यालय को प्रार्थना-पत्र भेजा घोर सिण्डोकेट के हारा यह विपय स्वीकृत कर लिया गया । मेरा प्रथम पंजीकररण झप्रेल सन् 1964 में हुमा भौर विपय का संशोधन प्रप्रेल सन् 1968 में हुमा । श्रव मुझे ग्रपने विपय को किर नवीनरूप में लेकर चलना था किन्तु दुर्भाग्य से छाप्रदेत्ति केवल दो ही वर्ष मिलो भौर तुतीय वर्ष छात्रदृत्ति न मिलने के कारण मैं हतोत्साह ही नहीं हुमा भपषितु मुफे बाध्य होकर राजस्थान संस्कृत कालेज जयपुर में प्राध्यापक का कार्य सम्हालना पड़ा । श्रव शोधप्रबन्ध की शोर वह रूचि नहीं रही जो रहनी चाहिये थी भौर इसके साथ-साथ गृहस्थ का भार एवं झनेक समस्यायें मेरे सामने भरा पड़ी जिससे शोधप्रबन्ध की गति भत्यत्त शिथिल पढ़ गयी किन्तु कार्य मन्द गति के रूप में चलता रहा । मेरे मित्र श्री सुभाप चन्द्र तनेजा ने भ्रपना शोघप्रवन्ध संस्कृत माध्यम से प्रस्तुत करना चाहा था श्रौर घ्रभिन्नता के प्रभाव से मैंने भी भ्रपना माध्यम भी सस्कृत ही चुना । गुरुदेव ने भी मु्े इस विषय में प्रोत्साहित किया श्रौर मैं इसी माध्यम को लैकर कार्य करता रहा । कार्य करने के साथ मुझे डा. प्रभाकर शर्मा ने चताया कि महाभारत का भ्रालो चनारमक प्रकाशन जो कि भण्डारकर प्राच्यविद्या शोध-संस्थान से प्रकाशित हुमा है वही शोध हेतु स्वीकृत है श्रम्य प्रकाशन नहीं महा- भारत का यह प्रकाशन 1500 रुपये का. मिलता था शौर मुक्त भर्थाभाववान् के लिये इसे खरीदना. श्रसभव था । मैंने श्रपना कार्य गीता-प्रेस गोरसपुर से प्रकाशित महाभारत से ही प्रारंभ क्या था प्रौर मैं 90) में मिलने के कारण उसे ही प्राप्त कर सका था । डा. प्रह्मानन्द ने मुझे बताया कि गीताप्र स का प्रकाशन बम्बई वाला प्रकार शन है झौर वह भी मान्य होना चाहिये किन्तु फिर भी यदि दोनो का तुलनात्मक श्रध्ययन कर लिया जावे तो उत्तम रहे । मुझे तुलनात्मक भ्रष्ययन में फिर कम से कम छः मोह लग गये । इसके साथ-साथ प्रनेक ग्रत्यों का शध्ययन कर शोध-सामप्री एकश्रकर मैंने मन्द गति से संस्कृत माध्यम द्वारा अपना शोध-प्रवन्ध जेसे-तैसे लिख- कर गुरुदेव के समक्ष गत वर्ष के ग्रीप्मावकाश में रखा । गुरुदेव ने उसे सुकमदष्टि से देखा ग्रौर मुक्के झ्जमेर परामर्श हेतु बुलाया । विचार-विमर्श को सार यह निकला कि शोधप्रवन्ध में विवेचन का श्रभाव है और साथ-साथ प्रत्येक श्रष्पाय को क्रमश
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