कृष्णप्रिया | Krishnapriya

Krishnapriya by अज्ञात - Unknown

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about अज्ञात - Unknown

Add Infomation AboutUnknown

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
श् सुष्णुप्रिगफा षुधी-कीरे उठाई ऋाप- ग्रीवा । मेलनराधि सुदित हे जीवा॥ तदपिन जगा सददुमुनिध्यानी ।गयोसप तबनिज रजधानी ॥ शीशमुकुट घरघरा उतारी । उपजों ज्ञान शोच भो भारी॥ जातरूप मममुकुट विशाला । जहैंनिवसतकलियुग सबकाला ॥ बेर सम्हारि झपीय बनायों । तेहिखिल अघमकर्म कंरवायों ॥ दो आसी बिप सुबस्वकरहें सुनि गल मेलो जाय । भयोदीष अस मितिनजहि भूप हृदय अकुलाय ॥ बरणु धर्मत्रिय धन परिवार । किमिन नश्योयड आजहमारा॥ धृकहों. जीवत ऋषि इखदाई । का जानिय कबयह अघजाई॥ इतबसुघेश शोक दविमाहीं । पेरतथाह लगत जनुनादी ॥ उत बालक खेलत तेहि काला । सनि तट जातभये मनिभाला॥ ऋषिकंघरअहिसत कविलोकी ।चकितविक ल भेजि मिनिशिकोकी सम्मत करे. परस्पर से । तदापंघीर नहिंतिन तनहोई॥ शक कहिसि कौशिकि सीरितीरा । इनकर सुतखेलत सुनुबीस ॥ ताहिकहों कोउ सुनियक धावा । मुनिसुतदंदमध्य चलिझाव॥। दो० तह श्रंगीन्डषि समुदमन करत खेल जिमिबाल । कहिंसि जाय तेहि बालते यहचीरित्र तेडिकाल ॥ का खेलत अशोच तें भ्राता । चलुमम साथदेख निजताता॥ वाके कैठ से. मरूतडारा । नपकोइू हों मेन निहारा ॥ सुनत सकोप भयो ऋषि कैसे । वीरभद्र विधिसुत मषजेसे ॥ अरुण चश्तु भूकुटी मे बॉकी । यथाज्रिपुर्लखिनयोपिनाकी॥ उठे रोम थर हरेउ शरीरा । कही महामूनि गिरा मीरा ॥ अबकलि- सूपभये _अभिमानी | घनमद मते झंघ ज्ञानी ॥ देहोंशाप ताहिददों आज़ । जिहि बशकालकीन्द यहकाजू ॥ झसकहि मुनि कौशिकि तटजाई। जलकर लें वोर्यो अकुलाई॥ दो ० . जेहिभ्रपति ममतात गल डास्मतकअहिलाइ | दिवससातवेंताहिकई सपे अवशिडसिखाइ ॥ देझ्सशाप जनक दिंग गयऊ । कंघरसपे निकारत भरयऊ




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now