आचार शास्त्र | Aachar-shastra
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14.64 MB
कुल पष्ठ :
262
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)है. हैं.
समाज से परे एकाकी ही हो ऐसी बात नहीं दैं । उसके आचार को
मापदणड कुडेक ऐसे सिद्धान्त भी होते दै और हो सकते हैं जिनका
ब्याघार एक दर्शन-विशेष हो । जो हो, मनुष्य अपने आप से भी तो
जिज्ञासा करता है कि उसका व्यवहार कैसा होना चाहिए । चह दूसरों के
व्यवद्ार पर उपना मत भी देता दै और उस मत का आधार भी देता दूं
तथा यह भी जिज्ञासा करता है कि उनका व्यवह्र कैसा होना चाहिए
च्यथवा हम सच का व्यवहार कैसा होना चाहिए । हमें क्या करना चाहिए ?
इमी प्रश्न के उत्तर से द्ाचार-शास्त्र का निर्माण होता है। किसी भी कम का
करना अनुभूति और ज्ञान से परे होकर तो हो ही नहीं सकता है । कर्म को
बागी और मन से सवधा प्रथक. करके नहीं रखा जा सकता दे इसीलिए
यह कहना पढ़ता है कि मनसा, चाचा दौर क्मणा हमें क्या करना
चाहिए इस प्रभ का उत्तर आचारशाख्र में मिलता है] हमारे कर्म
हमारो द्यलुभू तियों, हमारे विश्वासों एवं विचारों की घोषणा करते है।
दत्त: हम प्राय: बद्दी करते है जो हम होते है। हमारा अन्तर ही तो
हमारे बाह्य की बहुत कुछ सष्टि करता दै। मोर हमारा बाह्य ही
हमारा झाचरण (0०0तए८५ कहलाता है । हमारे जन-सस्पकें की,
सामाजिक जीवन की नींव श्याचरण पर ही रखी जाती है झोर इस घ्ाच-
रगा का झाधार होता है चरित्र (ए०दत2८६८/) ! मानव के जीवन में उसके
घ्याचरण् का बड़ा ही महत्त्वपूरण स्थान है । झत: हमारा आचरण केसा
होना चाहिए यह जानना हमारे लिए अत्यन्त ब्यावश्यक होता दै । इससे
इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि मानव-जीवन में झ्याचार-शास्त्र का
उ्यत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान दै । अतः हमें द्याचार-शास्त्र की झ्ावश्यकता
है। ने ही उसकी क्रियात्मक उपयोगिता कुछ भी हो किन्तु उसकी
उ्परावश्यकता तो हमें दे ही ।
समस्या--अव देखना यह चाहिए कि घ्माचार-शास्त्र की समस्या
(रए001600 का जनम कैसे हुआ | हम आरम्भ में ही देख चुके है
कि किसी सी प्रकार की खोज के रस्म होने का कारण मालव की
वह जिज्ञासा होती दे जो उसे खोज करने को विवश कर देती है । ्यौर
जिज्ञासा तब ही उत्पन्न होती दै जब कि मानव अपने भीतर उथवा
बाहरी संसार मे ऐसी परिस्थितियों के बीच पड़ गया हो जो उसे
शाश्चयंचकित कर देती हैं और वह उन्दे पूर्णतया झपने स्वभाव श्औौर
गत चलुभवों के झलुरूप न पाता हो । सष्टि के झ्ादिकाल से ही सानव
ने ऋ्पने लैसर्गिक संस्कारों झथवा प्राकृतिक प्रदत्तियों के अनुरूप स्वभाव
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