नागफनी | Nagfani

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Nagfani by कृष्णचन्द्र शर्मा - Krishnchandra Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नागफनी श्र हाथ ने उठकर बत्ती नीची कर दी श्रौर प्रकाश को श्रंघरे से घुला-मिलाकर चूड़ियों की खनक से भर दिया । उस खनक ने जसे भनुभाई को इशारा करके कहा हो कि फिर झाना श्राराम का वक्‍त है । मतुभाई लौट गए । लाठी से जमीन को छुम्ना तक नहीं । कहीं किसी तरह की प्राहट पाकर चूड़ियों की खनक को नाराजगी न हो जाए। मनुभाई वहां से लौटते हुए अपनी खोली की श्रोर बढ़े । जिसके ऊपर नीम का बूढ़ा पेड़ सदा छतरी ताने रहता है । पर इस समय उन्हें न तो श्रपनी खोली दिखाई दे रही थी श्रौर न वह नूढ़ा नीम । उनकी झांखों के आगे-ब्रागें उनकी लाठी से भी दो कदम बढ़कर झधघर थे एक चीज़ बढ़ रही थी ग्रौर वह था चूडियों वाला हाथ | मनुभाई चुपचाप नीम तलें तक बढ़ आ्राए। नीम के नीचे बने छोटे से चंबूत रे पर पीली निबोलियां अर सुखी पत्तियां पड़ी थीं । पर इस अ्रंधियारे आर श्न्य- मनस्कता में मनुभाई के लिए उनका कोई अस्तित्व न था | वे दो-चार निवोलियों को पटखाते से धम से चबूतरे पर बैठ गए हाथ की लाठी बगल में रख दी। पर सामने भूलते हुए हाथ को न हटा सके । कम ही कोई विपय उन्हें इस प्रकार श्राकृष्ट कर पाता था । पर वह चूड़ियों से भरा हाथ निरा हाथ न था बल्कि किसी कथा के श्रामुख सा श्रनेक कुतुहलों का उत्पादक था । कितनी ही देर हो गई। सौमी का चांद नीम की टहनियों के क्रोखों में से फांकने लगा था । पारसी के दूखने बंगले की उस तरफ वाली सपाट दीवाल दिव से उयादा खूबसुरत दीखने लगी थ्री । एक किरण मनुभाई की खोली के ताल पर भी पड़ रही थी । भ्रंघियारे के घूंघट में बह ताला बुल्ला-सा चमक रहा था । नीम भ्रपनी डालों-ट्हुनियों की भुजाएं बढ़ाकर खोली पर घिरे श्रंघियारे की रक्षा कर छाथा। पर पास-पड़ोस में बिखरी चांदनी की रौनक से बह अंधिया रा फीका पड़ चला था । कमसिन चांदनी की बुलाहट पर चित्रकार सुंदरम्‌ श्रपनी खोली से घाहर निकल आया था । सफंद लुंगी श्र घौली चांदनी के सीच उसका काला काश शरीर श्रावरणहीन होने की वजह से खूब चमक रहा था । उसने नागफंगी के कांटों पर खेलती हुई फीकी चांदनी के देखा फिर चांद की खोज में श्रारामान को _ लम्जारा | चांदें को देखकर उसे सुंधनी की प्रेरणा शिली । उसने झांटी में से सुंघनी




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