कल्प वृक्ष | Kalpavriksh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कल्पवृक्ष रू तब उस कला में से सोम प्रकट हुभ्रा । तदनंतर उस घट से श्री उत्पन्न हुई । फिर सुरादेवी श्रौर मन के समान वेगवान्‌ (मनोजव ) सप्तमुख उच्चे श्रवा नामक श्रदव उत्पन्न हुद्रा । ये चारों श्रादित्य-मार्ग का श्रनुसरण करके जहां देवगण थे वहीं चले गये । मरीचियों से प्रकाशित दिव्यमरिण कौस्तुभ नारायण विष्णु के वक्ष स्थल पर विराजमान हुई । इसके बाद दवेत कमंडलु को धारण किये हुए भगवान धन्वन्तरि प्रकट हुए। उस कमंडलु में भ्रमृत था । वहीं पारिजात कल्पवृक्ष चार इवेत दांतों वाला ऐरावत हाथी श्रौर कालकूट विष प्रकट हुए । ब्रह्मा के कहने से शिव ने कालकूट विष कप्ठ में धारणकर नीलकण्ठ की पदवी प्राप्त की । उसी समुद्र-मंथन से कामधेनु गौ पांचजन्य दांख विष्णणु-धनुप श्रौर रम्भादिक देवांगनाएं उत्पन्न हुई । देवों ने जय पाकर मन्दर पवत का यथोचित सत्कार करके उसे अपने स्थान में प्रतिष्ठित कर दिया श्रौर भ्रानन्दित हुए । समुद्र-मंथन का यह उपाख्यान श्राध्यात्मिक पक्ष में मनुष्य की देवी श्र श्रासुरी वृत्तियों के संघर्ष का विवेचन करता है। मनुष्य का मन उसकी स्वेश्रेष्ठ निधि है मननात्मक अ्रंश ही मनुष्य में देवी अ्रंद् है। शरीर का भाग पाधिव श्रौर मन का भाग स्वर्गीय है । अथवा यों कहें कि शरीर मृत्यु श्रौर मन शभ्रमृत है । शरीर का सम्बन्ध नइवर है मन का कल्पान्त-स्थायी । किसी भी क्षेत्र में देखें मन की शक्ति शरीर की अपेक्षा बहुत विठिष्ट है । ऋग्वेद के ऐतरेय ब्राह्मण में कहा है कि मनुष्य के भीतर जो मन है वही प्रजापति ने अपना अ्रलौकिक स्वरूप मनुष्य के भ्रन्दर सल्निविष्ट कर दिया है श्रपूर्वा प्रजापतेस्ततूविद्ेष तनमन । (ऐ० २४) पुरुष के दारीर में मन ही देवों और अ्रसुरों का संघष-स्थल है । वैदिक परिभाषा में मनुष्य का शरीर घट या कलश कहा जाता है। मनुष्य का एक नाम समुद्र है पुरुषों वे समुद्र । (जेमिनीय उप० ब्रा० दे ३५४) इसी समुद्र का मंथन जीवन में सबके लिए श्रावइ्यक कतंव्य है । उसीसे श्रनेक दिव्य रत्नों का उद्भव होता है । इस मंथन से जो श्रमृत या जीवन का प्राण-भाग उत्पन्न होता है उसका श्रंश देवों को मिलना चाहिए । भ्रसुर




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