हिंदी साहित्य का रीतिकाल | Hindi Sahitya Ka Ritikal
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.79 MB
कुल पष्ठ :
170
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)11 करिता कैवल म्रसंकृत हो नही है इतर काव्यांगो को भी ययोनित महत्व दिया गया है । इस काल के कवियों में ग्रलंकार को भ्पनाया श्रवश्य हैं किन्तु झलंकार से कहीं भविक जोर रस पर दिया गया है । जब रस पर जोर है तो फिर प्रधानता की दृष्टि से भी देखें हो इसे अतंकृत काल नहीं कहा जा सकता हैं संस्थ्रत काब्य-शास्त्र मे अलंकार शब्द थिविध काव्यांगों का बोधक झवश्य रहा है । यदि हम श्रलंकार शब्द का यही भाव ग्रहण करें तो यट नाम स्वीकार हो सकता है किन्तु ऐसा हम करते नहीं हैं । इस स्पिति में घावजुद धलकार-प्रयोग के इसे श्रलंकार काल नहीं कहा जा सकता है । एक कारण यह भी है कि हिन्दी में मलंकार शब्द एक ही काब्यांग के लिए रुढ हो गया है । किर विविय काव्यागों का वोघक मी झलंकार को नहीं माना जा सकता हैं । जद्दां तक रीति श्ौर श्गार का प्रश्न है ये दोनों ही श्रपनी-म्रपनी जगह विशेष महत्व रखते हैं । रीतिकाल शब्द का प्रयोग म्राचार्य शुवल ने किया है किन्तु साथ ही उन्होंने इसे शऋ गारकाल कहे जाने पर भी श्रापत्ति प्रकट नही की है 1 किन्तु इसका यह प्र्थ किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं किया. जा. सकता कि इसे शंगारकाल कहा जाये। जो लोग इसे शऋ गारकाल मानते हैं जैसे कि झाचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र उनका प्रमुख तक यह है कि इस युग के कवियों की मूल प्रदृत्ति शगार-वशुन की रही है । ध्यान से देखें तो यह तो कहा जा सकता है कि इस युग में श्गारनवणन की प्रवृत्ति रही है किन्तु ऐसी प्रद्डत्ति व्यापक्ता लिए हुए है प्ौर वही काव्य का स्वेस्व है नहीं माना जा सकता है । इस काल में जो रचनाएँ लिखी गयी हैं वे राज्याधय मे रहने वाले कवियों की हैं। ऐसे कवियों ने झपने- श्रपने श्राश्यदाताशों को प्रसन्न करने के उद्देश्य से ही श्र गारिक रचनाएँ लिखी है । कवियों का उद्देश्य प्रपने-सपने श्राधयदाताओओं को प्रसभ करके उनकी काम-वासना को जगाना नहीं था वहिक ऐरो बरंनो रो उनका मन मोहेते हुए भ्रपम लिए बहुत फुछ प्राप्त करना था फिर श्र गारिकता कवियों का उ्श्य कहाँ रही । श्ंगारकाल नाम को स्वीकार कर लेने पर एक शभ्रापत्ति यह सी है कि इसी युग में ऐसे कवियों की मी कमी नहीं है जो शगार-वर्णन करते हुए भी श्रपने शसार-कर्म से सन्तुप्ट नहीं थे । मतिराम सतसतई श्रौर भिलारीदास के काव्य निर्णय मे ही नही जसवन्तसिंह के मापा मूपणा शरीर याकुव साँ के रस मूपण में भी श्गारिक सनोदत्ति से यचने का मनोभाव दिखाई देता है । मतिराम सतसई की ये पवितयाँ देखिए नृपत्ति नेम कमलनि छूधा चितवत बासर जाहिं 1 हृदय कमल में हरि लें कमलमुखी कमलाहिं ॥ 1 मतिराम सतसई 1 इसी प्रकार मिसारीदास के इस कथन को मी देखिए गे के सुकवि रीकिहैं तो कबिताई न तो राधिका कर्हाई सुमिरन को बहनों है 1 काव्य निर्णय ॥
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