महाभारत - कथा भाग 1 | Mahabharat - Katha Vol - I

Mahabharat - Katha Vol - I by श्री पू. सोमसुन्दरम - Shri Purn Somsundaram

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भीष्म-प्रतिज्ञा युचक खड़ा गंगा की बहती हुई धारा पर बाण चला. रहा. ्या । नाणों की बौछार से गंगा की प्रचण्ड धारा एकदम रुकी हुई थी 1-देखे शान्तनु दंग रह गये | इतने में ही राजा के सामने स्त्रयं गंगा आआ खड़ी हुई । यंगा मे युवक को अपने पास बुलाया श्और राजा से वोली-- राजन यही तुम्हारा और मेरा आठवा पत्र देवब्त है। महर्षि वसिष्ठ से इसने वेदों झौर वेदागों की शिक्षा प्राप्त की है। शास्त्रज्ञान में शुक्राचायं श्र रगपु- कौशल में परशुरामजी ही इसका मुकाबला कर सकते हैं । यद्द जितना कुशल योद्धा उतना दी चतुर राजनीनिश भी है । तुम्हारा पत्र अब तुम्हारे सुपर है। इसे साथ ले जाशओ | गगादेवी ने देवब्रत का साथा चूमा और श्राशीर्वाद देकर राजा के साथ उसे विदा किया । तेजस्वी पुत्र को पाकर राजा प्रफुल्लित सन से नगर को लौंटे । थोड़े ही दिन में राजकुमार देवनत युवराज के पद को सुशोमित करने लगे | भीष्स-प्रतिज्ञा चार व बीत गए । एक दिन राजा शान्तनु जेसना तट की तरद्ध चूमने गए तो वातावरण को अनेसर्गिक सुगन्धि से भरा पाया। उन्दें आश्चय हुआ क्रि ऐसी मनोददारिणी सुवास कहा से झ्राती होगी । इस त्रात का पता लगाने के लिए चह जमना तट पर इधर-उधर खोजने लये कि इतने म अप्सरा-सी सुन्दर एक तरुणी खड़ी दिखाई दी । राजा को मालूम हुआ कि उसी सुन्दरी की कमनीय देह से यद्द सुवास निकल रही है और सारे वन-प्रदेश को सुवासित कर रही है । तरुणी का नाम सत्यवती था । पराशर सुनि ने उसे वरदान दिया था कि उसके सुकोमल शरीर से दिव्य गन्घ निकलती रहेगी ।




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