काशी का इतिहास | Kaashi Ka Itihas

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Kaashi Ka Itihas by डॉ. मोतीचन्द्र - Dr. Moti Chandra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४ ) ने उत्पादन का सम्बन्च हैं, बनारस बपनी पुरानी परम्परा को ललुण्य बनाये हुए है। यहाँ के व्यापारियों ने हमेणा देश, समाज और थिला की उस्ति में सहयोग दिया हैं । जहाँ हक समय हो सका हैं, मैने काशी के इतिहास बोर सम्कृति सम्बन्ची विखरी सामग्री इकटूठी लग दी हैं। कानी के सम्बन्ध में और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता हैं, पर इनके लिए ऐदिहानिक सामग्री के चयन की बतीव मावश्यकता है । भारतीयों में पेलिहासिन भावना की कमी होने ने वनारम सम्बन्धी चामत्री परिसीमित है। अभिलेनों इन्यादि से यहाँ के इतिहास पर घृंघला प्रकाटा पड जाता हैं, पर उनका विषय ब्राह्मणों कों दाच दक्षिणा देना ही सृन्य है। यह उम्नीद की जा सकती थी कि मुगल युग से लेकर १८ दीं सदी के अन्त तक के कागज पत्र बनारस के पुराने जान्दानों में काफी सच्या में मिन्‍्गे, पर जहाँ दक मेने पत्ता लगाया, पुराने कागजात या तो दीमक खा गयें था रही के भाव त्रच दिये गये ! जो बचे, उन्हें गगा जो में पवय दिया गया । भाग्यवण ही १८ वी नदी में मराठों का सम्वस्च बनारस से बटा जिसके फ्लन्वरूप पेंशवा दफ्तार में सरलित पुत्र-व्यवहार बवा न के लिए अपू्व सामग्री उपस्थित्त करते हैं। ये पत्र केवल रूखी सूखी एनिहानिन बातो मे हो नहीं मरे हूं, उनमें नगर के जीवन के विचित्र पहलुओं पर प्रकाथा डाला गया हूं। भम्रेजी बोर फारनी कायज पत्रों चे भो नगर को राजनीतिक परित्विति पर प्रकादा पड़ता हैं और व्यापारियों का म्रेजों के हाय व्यवहार भी म्पप्ट होता है । बनारस में ऐतिहासिक और लघं-एतिहासनिक अनेक किंबदन्तियाँ प्रचलित हैं । उनमें अपना मड़ा हैं, पर इनिहान रचना में मैने उनका उपयोग समझ व्नकर ही किया है। नेरी पत्नी श्रीमही आानि देवी ने बड़े हो पाख्त्रिम से पुस्तक को पाइलिपि तैयार रूर दी, पर पुस्तक दो-तीन साल में टाइप होकर पढ़ी थी । मृझे इत्तता समय भी नहीं मिन्ता था कि उसे उलट पुल्दकर प्रेत कापी बना सकूं। मैं काथी विश्वविद्यालय के क्षनद्ज नाप इण्डोठोंजो में कला घर वान्तुशान्य के इतिहास के अध्यापन टा० आानन्द कृप्ग ला कन्यन्त ही बनुगृहीत हूं जिन्होंने वे ही परिन्नम के साय प्रेस कापी तैयार की और मेरे दालमदूठ करते हुए मी उसे प्रेस में भज ही दिया । भारत-सरकार के सूचना विभाग के अफसर श्री लघोन जी ने भी टाइप कापी के सथोघन में मेरी काफी मदद को, में उनना आाभारो हूं । पुस्तक के प्रकाथक तया हिन्दी ग्रय रत्नाकर, वम्वर्ड के मालिक मोदी वन्घुओ का भी बनुगृहीत हूं । श्री लष्मीदास, प्रवन्चक, हिन्द विश्वविद्यालय प्रेस ने पुस्तक अच्छे टग से छापने में काफ़ी तत्परता दिखलायी । लगर संघ मित्रो का उत्नाह न मिलता, तो मेरे जैसे बहूवची के लिए यह सभव न था कि पुस्तक जल्दी मे छप सके 1 १५ जुलाई, १९६ --मोतीचन्द्र शक




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