राजस्थानी सबद कोश खंड १ | Rajasthani Sabad Kosh Khand - 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निवेदन पैठ एवं श्रनोखी सुक्त का ही प्रमाण है। इतना सब कुछ होने पर भी यह तो नहीं कहा जा सकता कि कोश में दी गई सब व्युत्पत्तियाँ, अपने में पूर्ण हैं । उनमें मतभेद हो सकता है । इसके श्रतिरिवत भाषा विज्ञान का भी निरन्तर विकास होता जा रहा है। भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा नित नवीन सिद्धान्तों की स्थापना की जा रही है। ऐसी स्थिति में श्राज जो सत्य मानी .जाने वाली व्युत्पत्ति कल गलत सिद्ध हो जाय तो कोई श्राइचयें की बात नहीं । विकासोन्मुख श्रवस्था का स्वागत करना ही चाहिए । कोश में भ्रर्यों का महत्व सबसे श्रधिक है। कोश का मुख्य उपयोग श्रर्थ, परिभाषा या व्याख्या जानने के लिए ही किया जाता है । भ्रन्य उपयोग प्राय: गौण होते हैं, श्रत: इस बात का ध्यान रखने का विशेष प्रयत्न किया गया है कि दब्दों के झ्र्थे या उनकी व्याख्या ठीक प्रकार से स्पष्ट हो जाय, सहज में बोधगम्य हो जाय एवं झ्रथे देखने में पूर्ण सुविधा हो, इसी दृष्टि से शब्द के विभिन्न भ्र्थों को श्रलग-अलग वर्गों में बाँट दिया गया है आर पार्थक्य प्रकट करने के लिए उनके साथ संख्यासूचक श्रंक भी दे दिए गये हैं । श्रावस्यकता होने पर अ्रथें स्पष्ट करने के उद्देद्य से दाब्द के साथ कुछ विशेष विव- रण भी प्रस्तुत किया गया है जो उस शब्द के सम्बन्ध में श्रतिरिक्त जानकारी देने में सहायक होगा । श्रथें देने के लिए प्राय: पर्याय एवं व्याख्या दोनों विधियाँ अपनाई गई हैं । जहाँ व्यनंग', 'मार', 'मदन' श्रादि के आगे केवल कामदेव ही लिखना पर्याप्त समभा गया है वहाँ कुछ शब्दों की पूरी व्याख्या भी दी गई है । प्रयत्न यह किया गया है कि जो परिभाषाएँ दी जायें वे जटिलताओं से मुक्त तथा दुरूहताओं से रहित हों, जिससे वे साधारण पाठकों को भी भली प्रकार बोधगम्य हो सकें । शब्दों के साथ जो क्रिया प्रयोग, सुहावरे, कहावतें, रूप- भेद, अ्रत्पार्थे, महतत्ववाची शझ्रादि शब्द हैं वे सब उन्हीं झर्थों के तुरन्त बाद ही दिए गए हैं जिनसे कि वे सम्बन्धित हैं । अथें श्रौर व्याख्या मुख्य या अधिक प्रचलित शब्द के साथ देकर उस दाब्द के अन्य रूपभेदों के सम्मुख उस दाब्द का निर्देश कर दिया गया है । यदि इस शब्द का निर्देशन शाब्द के किसी रथ विशेष से ही संवंध है तो उस निर्देश के झ्रागे संबंधित रथ का संख्यासूचक श्रंक भी दे दिया गया है । इस प्रकार के [उ स्पष्टीकरण से, आ्राश्या है कि पाठक एवं जिज्ञासु जन सहज ही में आ्राशय समकत लेंगे श्र तुरन्त शअ्रभीष्ट श्र्थ तक पहुँच जायेंगे । प्रस्तुत कोश के निर्माण की एक लम्बी कहानी है । जब से राजस्थानी साहित्य से मेरा परिचय हुभ्ना तभी से एक सर्वाज्ध, पूर्ण और वृहत्‌ कोश का अभाव सुक्ते खटकता रहता था । मैंने अपनी जिज्ञासा, यद्यपि वह मेरा दुस्साहस ही था, राजस्थानी के श्रनन्य सेवी पुरोहित श्री हरिनारायणजी के समक्ष प्रकट की । इस पर उन्होंने कोश सम्बन्धी कुछ रोजस्थानी पुस्तकें मेरे पास भेजीं । पुस्तकों के सम्बन्ध में मैंने पुनः उन्हें श्रपनी अल्प मति के श्रनुसार कुछ सुचना दी । इसके प्रत्युत्तर में मुक्ते दिनांक ६-४-३२ को उनका लिखा हुभ्रा पत्र मिला । कहना न होगा कि यही पत्र इस कोश के निर्माण की सम्पूर्ण शक्ति अपने में समेट कर लाया था । यहीं पत्र इस कोड के निर्माण का मुख्य प्रेरणा-स्रोत था । पत्र के भावों ने हृदय पर प्रभाव जमाया; एक नवीन प्रेरणा मिली, पथ प्रशयस्त हुआ । इससे यद्यपि राजस्थानी भाषा के वृहत्‌ कोश का सुत्रपात भले ही न हुआ हो परन्तु कोश-निर्माण का विचार तो दृढ़ एवं निद्चित रूप से हो ही गया । उन्हीं दिनों में मैंने 'सुरज- प्रकाश” अदि कुछ हस्तलिखित ग्रंथों से दब्द छांट कर उनकी एक लम्बी सुची बना कर पुरोहित श्री हरिनारायणजी के पास प्रेषित की । उन्होंने उस सुची को पसन्द नहीं किया किन्तु साथ में प्रकाशित अथवा श्रप्रकाशित ग्रंथों से शब्द छांटने के तरीके के सम्बन्ध में झ्रपने सुकाव भेज दिए । उन्हीं सुझावों के अनुसार नए सिरे से दाव्द संग्रह का कार्ये श्रारंभ कर दिया । पहला प्रयास होने एवं समयाभाव के कारण इसकी गति श्रति घीमी रही । कुछ सज्जन ऐसे भी थे जो शब्द देखने के बहाने स्लिपें ले जाते श्रौर लाख कहने पर थी वापिस लौटाने का नास तक नहीं लेते । ऐसी श्रवस्था में इस प्रकार की स्लिपों को फिर से तेयार करना पड़ा । ऐसे विद्याल कार्य में इस प्रकार की छोटी-वड़ी कठिनाइयाँ तो श्राती ही हैं । पुरोहित श्री हरिनारायणजी की इस सम्बन्ध में कुछ विद्ेष कृपा रही । कोश के दाव्द-संग्रह की प्रगति से मैं उन्हें निरन्तर सुचित करता रहता था । कई वार दो-दो मास तक मैं जयपुर में इसी कार्यें हेतु रहा श्रौर दिन में निरन्तर उनके पास जाते




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