अथर्ववेद चतुर्थ भाग | Atharva Ved Chaturth Bhag

Atharva Ved Chaturth Bhag by पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर - Pandit Shreepad Damodar Saatwlekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(२५ ) शक्ति शोर दूरसे सुननेकी शक्ति सुझ न छोड़ें गरुडके समान दृष्टि भोर बड़ा तेज मेरे पास रहें । मूर्घाई रयीणां सू घो समानानां मूयासम्‌ (१९३1१ ) घनोंका उच्च स्थान तथा समानों में सें उच्च बनूं । रुजश्व मा चनश्च मां हाखि्टां (१९६३२ )- तेज भोर कान्त मुझे न छोड़े । सूघा च मा विघमा च मा हासिश्ामू- उच्च स्थान भोर विद्षेष घ्मे सुझे न छोड़े । अखंतापं में हृदय ( १६1३६ )-- मेरे हृदयकों संताप नही। प्राणापानों मा मा दाखिएं मा जने प्र मेषि (१६।४।५) --प्राण श्पान मुझे न छोडे मनुष्योंमें थे घातक नबनू। अजेष्मादासनामाद्याभूमानागसों वयें ( १६६1१ )- भाज हम विजय प्राप्त करेंगे प्राघव्यको प्राप्त किया है इम निष्पाप हुए हैं । [द्लेषते तत्परा बह शपते तत्परा चह (१७1६३ )-- ट्वेष करनेवाठेको दूर कर गाली देनेवालेको दूर कर | य द्विप्मो यच्च नो देष्टि तस्मा पनदू गमयामः (१६६४ )-- जिसका दम सब द्वेष करते हैं भोर जो इमारा द्ेंघ करता है उसको नीचे पहुंचाते हैं । तडमुष्मै परा वहन्तु अरायान दुर्णास्र सद्न्वाः कुस्भीका दूषिकाः पीयकान्‌ ( १ ६६1७-८४ )- ने निधनता कष्ट आपस्तियां रोग दोष विपत्तियों को दूर रे जांय । तेनेने विध्याम्यभूत्येन विध्यामि निमभूस्येन विध्यामि पराभूत्यैने विध्यामि घ्राह्मन विध्यामि तमसैन विध्यासि ( १६७1१ )-- उससे इस पापका बघ करता हूं। दुर्भति दारिड़ा और रोगसे शात्रुको वींघता हूँ। पराभवसे कोर भन्घधकारसे धत्रुको पीडित करता हूं । जितस्मा्कं उद्धिन्निमस्मा के ऋत मस्माकं ते जो 5 स्मारक न्रह्मासमाकं सरस्माकं यज्ञोडस्माकं पद्ावो 5 स्माकं प्रजा अस्माक॑ वीरा अस्माकम्‌ ( १६।४)१ न दमारे विजय उदय सत्य वेज अधवचेदक १९ से १८ तक ज्ञ।न भात्मतेज यज्ञ पड प्रजा वीर हों । यद सब दुमें आरा हों । स श्राह्माः पाधान्मा मोचि ( ३६८1३ )-- वह क्षत्र रोगके पाक्षोंसे न छुटें | तस्येदू॑व्चेस्तेज। प्राणमायुर्नि चेश्टयामि इद्मेन मघरांचं पादयामि ( 3६४1४ )-- इसके तेज बछ प्राण भायुकों में घेरता हूं । इस शत्रुको नीचे गिराता हूं । बखुमान्‌ भरूयाखं वखु मयि थेहि ( १६९४ )-- मैं घनवाच्‌ होऊं घन मेरे पास रख | अभ्युद्य विषासहि समान सासहानं सहीयांखं । सह पान सद्दोजितं खार्जितं गोंजितं संघना जितें । इंड्य नाम हा इन्द्रमायुष्सान भयालम्‌ । ( १७1१1 ) -- सामध्यंवानू बछवान्‌ विजयी दत्रुको दुबाने- वाले शक्तिमान्‌ दिग्विजयी स्वसामध्यसे जीतने- वाढे भूमिकों जीतनेवाछे घन जीतनेवाढे प्रशनंस- नीय स्तुत्य इन्द्रकी दम सकि करते हैं में दीर्घायु बनूं | प्रियों देवानां सरुयासं ( १७१२ )-- देवॉंको में प्रिय बनूं । प्रियः अ्रजानां भूयाखं ( १७१३६ )-- में प्रजाभोंको प्रिय बनूं । प्रियः पदुनां सूयाखं ( १७१४ )- में पधुमोंको प्रिय बनूं । प्रियः खमानानां सूयाखं ( ३७1१५ )-- में संमानोंको प्रिय बनूं | द्विषंश्व महां रध्यतु मा चाह द्विषते रघे ( १७।१।६ ) - शबुभोंको मेरे दितके छिये वशसें करे परंतु में कमी शत्रुके अधीन न बनूं । खुघायां मा घेषि ( १७१1७ न असतमें मुझे रख । खनों सुड सुमती ते स्याम ( १७१1४ )-- वह तू इमें भानंदमें रख तेरी उत्तम संमतिसें दम रहें । त्वमिन्द्राखि बिश्वाजित्‌ खचबिवू ( ३७।११११ )नन हे इन्द्र । तू विश्वको जीतनेवारा भोर सबको ज्ञानने- बाका है। . ही




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