आत्मा कर्म पुनर्जन्म और मोक्ष | Aatma karm Punarjanm Aur Moksh
श्रेणी : धार्मिक / Religious, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28.85 MB
कुल पष्ठ :
254
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भूमिका / 1 1 तथा वनस्पतियो मे विहार करने का आदेश दिया है ।। कठोपनिपद् में तो नाचिकेतस् निर्भय है वह कहता है मनुष्य अन्न की तरह पकता है तथा अन्न की ही तरह पुन उत्पन्न होता है । जिस तरह वृक्ष काट देने पर भी उसमे से कोंपलें फूटती है । गीता में कहा है कि यह आत्मा न तो जन्म लेता है न मरता है। यह अजन्मा है नित्य है शाश्वत है शरीर के मारे जाने पर भी यह मारा नही जाता । शरीर के नाश पर भी इसका नाश नही होता । 2 इसी अध्याय का 22वाँ श्लोक पुनर्जन्म की स्पष्ट धारणा प्रस्तुत करता है-- बासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि. गृह्माति. नरोडपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही ॥ जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रो को त्यागकर नये वस्त्र धारण कर लेता है उसी प्रकार आत्मा (जीवात्मा) जीर्ण शरीर को त्याग कर नया शरीर ग्रहण कर लेती है। इस सपूर्ण चितन प्रक्रिया से सहज ही जुड़ा है मोक्ष का प्रत्यय । भारतीय दर्शन की स्पष्ट धारणा है कि आसक्तिपूर्ण कर्म ही बधन का कारण है। मोक्ष के लिए कर्म में से फलासक्ति का त्याग ही एक मात्र उपाय है । बुद्ध निर्वाण का अर्थ कामनाओ का बुझना ही मानते है । बुद्ध ने कहा है--अगर बीज को भूनकर बो दे तो कोई अकुर नहीं उगता। जीवन एक कर्मक्षेत्र है कर्म तो त्यागा नही जा सकता । आसक्ति को त्यागा जा सकता है। यही निष्काम कर्मयोग है । आत्मज्ञान ही मोक्ष का एक मात्र मार्ग है । आत्मा और परमात्मा एक ही है। जिस प्रकार भूगर्भशास्त्र से अनभिज्ञ व्यक्ति पृथ्वी मे अन्तर्निहित स्वर्णकोष के ऊपर विचरण करते हुए भी उसे खोज नहीं सकते उसी प्रकार समस्त प्राणी प्रतिदिन ब्रह्म से तादात्म्य प्राप्त करने पर भी इसे जान नही पाते क्योकि वे अज्ञान से विमोहित हैं । सांख्य दर्शन में इस सदर्भ में एक बहुत सुन्दर दृष्टांत दिया है--क्लेशरूपी जल से सिचित बुद्धि भूमि में कर्मबीज के अंकुर उत्पन्न होते हैं किन्तु तत्त्वज्ञानरूपी गर्मी पाकर क्लेशरूपी जल सूख जाने से बंध्या बुद्धि भूमि पर क्या कर्मबीज उत्पन्न हो सकते है ? अर्थात् आत्म ज्ञान से मनुष्य मुक्त हो जाता है। दर्शन और कविता का अन्तर- सम्बन्ध सर्वज्ञात है । मुझे उस अद्वितीय सत्ता ने काव्य प्रतिभा दी है। संभवत यही कारण है औपनिषदिक तथा वैदिक काव्यों गीता की ऋण 10 16 3 गीता 2 20 वही 22 तत्त्व कौमुदी सॉ० क० 67 मे ७ हे पाए
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