प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक इतिहास | Prachin Bharat Ka Sahityik Avam Sanskritik Itihas
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14.18 MB
कुल पष्ठ :
337
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्राचीन भारत का साहित्यिक एवं सॉस्कृतिक इतिहास : एक परिचय 7
'साँख्य' एक प्राचीनतम दर्शन है । साँख्य के प्रणेता के रूप में म्दाषि कपिल
का नाम ग्रादरणीय है । कपिल का “साँख्यसूत्र' सख्य दर्शन का श्राघार है । कपिल
के स्थितिकाल के विपय में निश्वयतः कुछ नहीं कहा जा सकता । फिर भी 'साँख्य सूत्र”
पाँचवीं शती ईसा पूर्वे की रचना श्रवश्य है । साख्य दर्शन के विकासकर्त्ता के रूप में
ईश्वर कृष्ण को पर्याप्त महत्त्व मिला है । ईश्वर कृष्ण भा स्थितिकाल चौथी शताब्दी
है । इनका 'साँख्यकारिका' ग्रन्थ साँख्य दर्शन का विद्वतापुर्ण ग्रन्थ है । श्राचाये माठर
की 'माठरवृत्ति' भी साँख्य दर्शन का महत्त्वपूर्ण ग्रव्थ है । माठराचायें का समय छठी
शताब्दी निश्चित है ।
पतजलिं का 'योगसूत्र' योगदर्शन का प्रामारिगिक ग्रन्थ है । पतंजलि का स्थिति-
काल ईसा पूर्व द्वितीय शत्ताव्दी मान्य है । योग से सम्बन्धित श्रनेक ग्रन्थों का
उल्लेख मिलता है परन्तु वे सभी ग्रन्थ श्राज श्रप्राप्य हैं । साँख्य दर्शन की भाँति
योग दर्शन भी स्व भाववादी दर्शन है, परन्तु दोनों की विकास-प्रक्रिया भिन्न है ।
महर्षि गौतम द्वारा प्रतिपादित न्याय-सिद्धान्त “न्यायदर्शन' के रूप में मान्य
है । दूसरी शताब्दी में अरक्षपाद गौतम ने “न्यायसूत्र' नामक प्रामाणिक ग्रन्थ की
रचना की । न्याय दर्शन के विकास में उद्योतकर (7वीं शती) का “न्यायवातिक'
विशेष रूप से प्रसिद्ध है । नवम् शताब्दी में श्राचायं घर्मोत्तर ने 'न्यायविन्दु टीका'
नामक ग्रस्थ की रचना करके तथा दशम शताब्दी में श्राचायें जयन्त भटूट ने
'न्याय-मंजरी' लिखकर न्यायद्शन का विकास किया । बौद्ध दार्शनिक दिडताग तथा
घर्मकीति ने कमशः छठी तथा सातवीं शताब्दी में वौद्ध-न्याय के विकास में महत्त्वपूर्ण
योगदान दिया । बौद्ध दाशेनिकों तथा नेयार्धिकों की खण्डन-मण्डन परम्परा के कारण
स्पायदशेंन का श्रमूतपुर्व विकास हुग्रा ।
महर्पि कणादू वैशेपिक दशंन के प्रवतेक के रूप में विख्यात हैं । महर्षि
करादु का समय चौथी शती ई. पृ. निश्चित है । कणाद् का 'वैशेषिक सूत्र वैशेषिक
दर्शन का मूल श्राघार माना जाता है । श्राचायें प्रशस्तवाद ने चौथी शताब्दी में
“पदार्थ-धमें-संग्रह नामक ग्रन्थ की रचना की । इस ग्रन्थ के ऊपर दसवीं शत्ताब्दी में
उदयनाचार्य ने 'किरणावली' तथा श्रीघराचायें ने 'न्याय-कंदली' नामक टीका लिखी ।
चैशेपिक दर्शन परमाणुवादी दर्शन हैँ ।
मीमांसा दर्शन के सुत्रपात का श्रेय श्राचाये जैमिनि को है । इनके 'मीमांसा
सूत्र' नामक ग्रन्थ का रचना-काल 550 ई. पूर्व है । शबर स्वामी का 'शावर भाष्य'
मीमांसा दर्शन का एक पुनरुद्धारक ग्रत्थ है । 'शावर भाष्य' पर कुमारिल ने सातवीं
शत्तान्दी में प्रामाणिक टीका की 1 कुमा रिल का मत भाट्टमत के नाम से प्रसिद्ध
है। 'शावर भाष्य' के दूसरे टीकाकार प्रभाकर हुए । प्रभाकर का मत गुरुमत नाम से
जाना जाता है। मुरारि 'शावर भाष्य' के तीसरे प्रसिद्ध टीकाकार हुए । मुरारि के
मत को सुरारिमत के रूप में जाना जाता है । मीमांसा दर्शन में श्राद्योपात्त कमेंका ण्ड
की प्रधानता दृष्टिगोचर होती है 1
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