गीता रसामृत | Geeta Rasamrit

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Geeta Rasamrit by श्री शिवानन्द जी - Shri Shivanand Ji

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्री शिवानन्द जी - Shri Shivanand Ji

Add Infomation AboutShri Shivanand Ji

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
न पेषे न हमें गोद में बैठा लेगी कर्तव्य-पथ का बोध करा देगी विवेक देकर मन के जजाल दूर कर देगी सात्त्विक साहस भर देगी जीवन के प्रति उत्तम आस्था जगा देगी तथा सुख और शान्ति से भरपूर कर देगी । हमे अपने मन मे गीता के दिव्यामृत द्वारा सुरक्षा एव सुस्थिरता तथा सुख एव शान्ति प्राप्त करने के छिए उत्कण्ठा छाठसा और श्रद्धा जगानी चाहिए । दुर्गम और कठिन तत्त्व भी श्रद्धा होने पर सर एवं मधुर बन जाता है । पूरी तरह समझ मे न आने पर भी गीता का पढ़ना और सुनना प्रेरणा एवं प्रसन्नता देता है । गीता तो सर्वभूतहिते रताः के सिद्धान्त अर्थात्‌ प्राणिमात्र के कल्याण का उदुघोष करती है । जो व्यक्ति देश धर्म जाति वर्ण लिंग आदि समस्त भेदो को छोड़कर जीवमात्र के कल्याण की कामना करता है समस्त जीवों को सुख-शान्ति देने का प्रयत्न करता है वही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। गीता न केवल आध्यात्मिक साधकों का मां दर्शन करती है बल्कि इस लोक मे भी उत्तम जीवन जीने तथा सुख और शान्ति प्राप्त करने का मागें सुझाती है । इसमे थोड़े-से ही शब्दों मे मानव-जीवन के उच्चतम आदर्शों को प्रस्तुत किया गया है जिनमे कही कट्टरता कल्पना हठघर्मिता सम्प्रदायवाद या सकीर्णता का पुट नही है । गीता मे विविध विचारधाराओ का समन्वय यह सिद्ध करता है कि अनन्त भेद भी एक ही उद्देश्य एक ही लक्ष्य की प्राप्ति करा सकते हैं। ज्यो-ज्यो मनुष्य आधुनिकता से चुंधियाता जा रहा है त्थों-त्यो गीता की उपयोगिता ओर महत्त्व बढता जा रहा है। भौतिकता के घनघोर अन्घ- कार मे भटकती हुई मानव-जाति के त्राण के लिए गीता का आलोक ही एकमात्र उपाय है । इसका गभीर अध्ययन तथा इसके सन्देश का परिपालन व्यक्ति एव समाज मानव एवं मानवता की रक्षा करने में समर्थ है । गीता विर्व-कल्याण का उदुघोष करते हुए व्यक्ति के आत्मोत्थान को उसका सूलाधार मानकर उस पर विशेष बल देती है । गीता मानवमात्र को एकता के सुत्र मे बाँधने ज्ञान-विज्ञान को सत्य की ओर उन्मुख करने मनुष्य मे नैतिकता एवं आध्यात्मिकता जगाने ध्वस्त मूल्यों की पुनर्स्थापना तथा खण्डित आदर्शों का पुर्नानर्माण करने जीवन मे नवचेतना भौर भोज भरकर जीवन को उदात्त बनाने तथा घराधाम पर स्वर्ग लाने के लिए सर्वांग-सुन्दर एवं सर्वोत्कृष्ट ग्रन्थ है । आज परिवर्तन और प्रगति के नाम पर मानव ने अपनी स्वर्णिम शान्ति खो दी है। पुराने ढाँचे टूट रहे हैं और मानव-जाति एक अनजाने अँधघेरे मे खो रही है। यद्यपि विज्ञान और वाणिज्य ने पृथ्वी को एक छोटा-सा स्थल बना दिया है व्यक्ति विश्व के विशाल एव विस्तृत सन्दर्भ मे तथा उत्तम आदर्शों की परिपूर्ति की दिशा मे भटक गया है तथा वह समाज का और अपना विध्वसक दात्रु बन रहा है । अहं- कार स्वार्थ घृणा विद्वेष तथा विषाद से अभिभुत होकर मानव और मानव-जाति आत्मघाती हो गये हैं। बुद्धिवाद के नाम पर तर्क कुत्तके बन गया है तथा मानव अपने चारो ओर सारे ढाँचे ध्वस्त करने में सुख मान रहा है । मशीन ने मानव को प्रकृति से दूर हटाकर मशीनी और विलासप्रिय आलसी और दुर्बेल बना दिया है । उसके शरीर और मन की प्रतिरोधात्मक शक्ति विलुप्त हो गयी है और वह छोटे-से झझावात मे घिरकर दयनीय हो गया है। विज्ञान के आधार पर सभ्यता मे परिवर्तन एवं प्रगति होने पर भी सानव के भय क्रोध प्रतिशोध इत्यादि उद्देग ज्यो के त्यों ही हैं यद्यपि उन्हें प्रकट करने के तरीके बदल गये हैं तथा कुटिल हो गये. हैं । आज मनुष्य न्याय और सिद्धान्त की रक्षा के छिए नही बल्कि अहकार और ईर्ष्या-देष के कारण लड़ रहा है । मनुष्य अपने पड़ोसी के मकान दूकान स्त्री आर बच्चो को सहयोगी के बदले शत्रु बना रहा है । विदव के स्तर पर राष्ट्र भी यही्कर रहे हैं । ऐसी




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now