राज - दरबार और रनिवास | Raj - Darbar Aur Ranivas

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Raj - Darbar Aur Ranivas by एन. के. पारीक - N.K. Pareek

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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के छ्ि दी शा जू कि हि गे मर पर जे रण ्न्ग्स्यक पक हा पा शव ग् पर गा शान |... 3 भारत का सबसे सुन्दर नगर बताया जिसके राजमार्ग सी घे आर चाडे है आर मुख्य सडक जो पूर्व से पश्चिम को जाती हैं इतनी समतल ओर चांडी ह कि छह या सात गाडिया एक साथ बरावर- बरावर चल सकती है। _ के) दोनो थ 1832 उ मे आने वाले एक फ्रेच यात्री ने जयपर को ऐसा पाया था (मध्य मागों के) दोनो ओर महलो मन्दिये ओर मकानों के नीचे कारीगरों की दूकाने ह जो पाय खली हवा में अपना- अपना काम करते देखे जाते हे- दजी चर्मक्र स्वर्णकार सिलेहगर हलवाई ठठेरे आदि आदि दिल्‍ली में ऐसी एक ही सडक ह- चादनी चोक लेकिन जयपुर में सभी सडके ऐसी ही ह कही कीइ झोपडी कोई जीर्ण- शीर्ण मकान ओर कुडे- कचरे का ढेर नहीं। नगर चैसा ही दिसाइ देता है ज॑ंसा यह वास्तव में ह। कक जयपुर की स्थापना के प्राय एक सटी वाद आने वाले विशप हीवर ने नगर को घेरने वाले परकोटे या प्राचीर की तलना मास्को के केमलिन की दीवारों से की। जयपुर की स्थापना आर इसके सौंदर्यीकरण एवं विकास का कम तत्कालीन परिस्थितियों में सचमुच विस्मयकारक ह। जब जयपुर की नीव भरी जा रही थी मुगलो का शब्तिशाली सामाज्य छिनन- भिन्न हुआ जा रहा था। नगर पुरी तरह बना भी न होगा कि नादिरशाह ने दिल्‍ली को उजाड ओर लूटकर दरगरन दिया था आर जिस रगीले बादशाह मुहम्मदशाह को स्वय जयपुर के सस्थापक ने दिल वा जगदीश्वरों वा कहा था उसे घोर अपमानित और लाछित क्या था। 1743 ई मे जयसिह की भी मृत्यु हो गईं क्तु उसके वाद 75 वर्षों तक मरहठों और पिडार्यों के आतक आर आये दिन की लूटपाट के बावजूद जयपुर बरावर बनता आर बढ़ता रहा। यह सवा आश्चर्य ही है कि जयसिह के उत्तराधिकारियों ने जो एक दिन के लिए भी न अपने जीवन के प्रति आश्वस्त थे और न राज के प्रति निर्माण और कला- काशल के विकास की ऐसी महत्वाकाक्षा ओ को पूरा क्या जिनकी पूर्ति शांतिकाल में भी बहुत कठिन होती ह। जयपुर के अनेक भव्य मंदिर जो इस नगर के स्थापत्य पर छागे हुये हैं इसरलाट नामक विजयस्तभ जो आज भी नगर की आकाश- रेखा हे चन्द्रमहल के विभिन्‍न कक्ष परगना घाट की पवतीय उपत्यका में सीढ़ीनुमा उद्यानो की शूुपला ओर जयपुर के व्यग्तित्व का प्रतीक कमनीय जाली- झगेखों का हवा महल 75 वर्पों के इसी युगान्तरकारी और अनिश्चय के काल मे बने। यही नहीं जय मरहठे और पिडारी आकामक नगर के प्रमुख प्रवेशद्वारो पर दस्तक दे रहे थे यहा के नगर- प्रासाद में राधा-कृष्ण की लीलाओ पर आधारित भारतीय समूह- चित्रो के सर्वोत्कृप्ट उदाहरण - गोवडडन- धारण और रासमण्डल- जैसे विशाल चित्र बनाये जा रहे थे और यहा के राजाओ के हूबहू आकृति- चित्र भी वन रहे थे जिन्हे हिन्दू आकृति- चित्रो में सर्वोत्तम माना गया हैं। खगोलवेत्ता ज्योतिविद ओर भारतीय धमशास्त्रो के प्रवुद्ध पाठक सवाइ जयसिह का पुस्तकालय उसके समय मे देश के सवश्रेप्ठ पुस्तकालयों में से था। इसमे सवाई प्रतापसिह (1778-1803 इ ) ने भी काव्य खगोल धर्मशास्त्र दशन्‌ और आयुर्वेद पर सेकडो ग्रथ बढ़ाये जिनमें से अनेक टिकाऊ दोलतावादी कागज पर लिखे हुये है और भारतीय लिपिकारों की कला के वहुमूल्य नमूने ह। यह सारी सास्कृतिक एव साहित्यिक थाती जिसमें अकवरी दरवार के एक रत्न फंजी द्वारा किया गया महाभारत का साचित्र फारसी उल्था रज्मनामा भी है जयपर के पोधथीखाने मे आज भी सुरक्षित ह। जयपुर ने 1818 ई में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ सधि की और इसके बाद ही शातिकाल का प्रादुर्भाव होने पर महाराजा रामसिह (1835-80 इ ) ने जयपुर का आधुनिकीकरण किया। जयसिह और उसके उत्तराधिकारियों का जयपुर सफेद और पीले रगो स पुता था रामसिह ने इसे गुलाबी बनाया। इसी महाराजा मे वे सब आधुनिक सम्थाये स्थापित की जिनके कारण जयपुर प्रगतिशील रियासतो मे अग्रणी माना जाने ॥एयाव्टण]| सन सन शव डर नल नव राज-दरबार [_सज-दरबार और रनियास रनिवास प्प्ञ्घ्घ्स




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