भाखर रा भौमिया आदिवासी गरासिया साहित्य | Bhakhar Ra Bhaumiya adivasi Garasiya Sahitya

Bhakhar Ra Bhaumiya adivasi Garasiya Sahitya by अर्जुनसिंह शेखावत - Arjun Singh Shekhawat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४। ७ भाखर रा भोमिया आपको एक बात कहना चाहता हूँ कि आदिवासी लोक जीवन में विशिष्ट रूप से जो घटित हो रहा है और जिस संस्कृति के परिवेश में आदिवासी जी रहे हैं उसमें कुछ फर्क है। चाहे ये दो प्रकार या अनेक प्रकार के समाज एक ही क्षेत्र में निवास कर रहे हो । वे अपने-अपने शासन-अनुशासन प्रशासन की सीमाओं में जीवन यापन कर रहे हैं। इस स्थिति में आदिवासीयों को देखने समझने की तीन प्रतिक्रियाएं अदूभुत होती दिखती है। १. निरपेक्ष एवं समग्रता की दृष्टि से केवल आदिवासी जनजीवन को देखना । २. आदिवासी जीवन का अन्य समाजों की परंपराओं की धाराओं के साथ जोड़कर उन्हे अपने ही समकक्ष ले जाने की कोशिश कना ३. आदिवासीयों की जीवन पद्धति से उन्हीं तथ्यों का विवरण प्रस्तुत करना जो अन्य समाजों को आश्चर्यजनक एवं अदूभुत लगे और यह बताना कि आदिवासियों को मुख्य जीवन धारा में लाने के लिए क्या-क्या किया जाना आवश्यक है ? उपरोक्त तीनों प्रक्रियाओं के आधार पर होने वाले अध्ययनों की कार्य पद्धतियां (मेथोडोलॉजी ) भिन्न-भिन्न होनी चाहिए । लेकिन राजस्थान में होने वाले विद्वत कार्यों में एक प्रकार से इनका अभाव ही मिलता है। परिणाम स्वरूप एक ऐसा चित्र उभरता है जो गरासियों से संबंधित भी है और दूसरी ओर उनसे बहुत दूर भी है। मैं आपके अध्ययन की परतों के बाहर उन स्थितियों अभिव्यक्तियों और व्यवस्थाओं को समझने का उपक्रम करना चाहता हूँ जो निपट गरासियों की अपनी कही जा सकती हैं। लेकिन मैं इस तथ्य को भी भूला नहीं सकता कि अनेक सदियों से गरासिया या भील या मीणा या राजस्थान की अन्य जनजातियां प्रदेश की अन्य जातियों से बिल्कुल अछूती रही । एक जो स्थिति भारत के उत्तर -पूर्वीय क्षेत्र के आदिवासीयों में देखने को मिलती है वो निश्चय ही राजस्थान से बहुत अर्थों में भिन्न है । राजस्थान की जनजातियों का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां इन्हीं का वर्चस्व हो घनी आबादी हो जहां अन्य जातियों से एक मात्रा से अधिक आदान- प्रदान न हो । इसका स्पष्ट अर्थ यह भी है कि राजस्थान की जनजातियां अपने जीवन के परिवेश मे उन सभी अनुभवों एवं कार्यकलापों से अछूते नहीं रहे जो अन्हें सम्पूर्ण जीवन प्रणाली को सुनिश्चित एवं स्वतंत्र छबि प्रदान कर सके । इस अन्योन्याश्रित जीवन शैली ने कहीं अपनी पहचान बनाए रखी तो बहुत अर्थों में अन्य प्रभावो को भी अपने में आत्मसात किया । यह तथ्य आपके द्वारा संग्रहित सामग्री के माध्यम से स्पष्ट हो जाता है। आपने इस पर अच्छा प्रकाश डाला है। यदि हम गरासियों की भाषा एवं उसकी भगिमा के साथ उसके स्वरूप को समझने का उपक्रम करते है तो सामान्य राजस्थानी का प्रारूप हावी होता दिखता है । उसका एक प्रमुख कारण यह भी हो सकता है कि गरासियों की अपनी भाषा जो पारम्परिक व्यवहारों




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