अलबेरुनी का भारत | Alberuni Ka Bharat

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Alberunis Bharat by रजनी कान्त शर्मा - Rajani Kant Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ १५ श्रट्टावन वर्ष की श्रायु होते हुए भी, परिश्रम को जारी रखने झ्ौर उसक परिणाम प्तमय पर प्रकॉ- शित करने की प्रतिज्ञा करता है--मानों जनता के लिए नैतिकदायित्व से कार्य्य कर रहा है । वह सदेव श्रपने ज्ञान की सीमाश्रों को स्पष्ट बत्तला देता है | यद्यपि हिन्दुओं की छ्द-विद्या का उसे थोड़ी ज्ञान है पर जो कुछ भी उसे भ्राता है वह सब बता देता है । इस समय उसका सिद्धान्त यह है कि बहुत भ्रच्छा' “अझच्छे' का शत्रु न होता चाहिए, मानों उसे डर है कि उपस्थित विषय का अध्ययन समास होने के पूर्व हो कहीं उसकी मानव-लीला समास न हो जाय | वह उन लोगों का मिन्न नहीं जो श्रपनी श्रज्ञता को मैं नहीं जानता कह कर स्पष्ट दाव्दों में स्वीकार करने से घुणा करते हैं; और जव कहीं वह सरलता का श्रभाव देखता हे तो उसे वड़ा क्रोध श्राता है । ब्रह्मगुस यदि ग्रहणों के विषय में दो सिद्धान्तों ( एक तो राहु नामक नाग का प्रकाशमान लोक को निगल जावा--जैसा कि लोकप्रिय है; झोर दूसरा वैज्ञानिक ), की शिक्षा दैता है, तो वह--जाति के पुरोहितों के अनुचित दवाव से, श्रौर उस प्रकार की विपत्ति के डर से जो कि अ्रपने देश-भाइयों के प्रचलित विचारों के विरुद्ध सम्मति रखने से सुकरात पर झ्राई थी--निष्चय ही श्रपची श्रात्मा के विरुद्ध पाप करता है ( देखो परिच्छेद ५४६ ) । एक श्रौर स्थल पर वह ब्रह्मगुप्त को श्राय्यंभट्ट के साथ श्रत्याय भर अशिष्टता का वर्ताव करने के लिए दोषी ठहराता है ( परिच्छेद ४२ ) | वराह- मिहिर की पुस्तकों में वह ऐसे वाक्य पाता है जो एक सत्य वेज्ञानिक पुस्तक के सामने उसे “एक पागल की वकवाद”? प्रतीत होते हैं, परन्तु इतनी दया उसने दिखाई है कि यह कह दिया है कि उन वाक्यों में कुछ गढ़ झ्रथ॑ छिपे पड़े हैं जो कि उसे मालुम नहीं, पर वे ग्रंथकार के लिए श्रेयस्कर हैं । जव वराहमिहिरि साधारण ज्ञान की सब सीमाओं का उल्लज्ओन कर जाता है तो श्रलवेंरनी विचारता है कि ऐसी वातों का उचित केवन मौन ही है ।” ( परिच्छेद ५६ _... उसका व्यावसायिक उत्साह श्रौर यह सिद्धान्त कि विद्या पुनरावृत्ति का ही फल है ( परि- च्छेद ७८ ) उससे कई वार पुनररुक्ति कराते हैं, श्रीर उसकी स्वाभाविक सरलता उससे कठोर श्रौर उम्र बाब्दों का व्यवहार करा देती है । वह भारतीय लेखकों श्रोर कवियों के--जो जहाँ एक शब्द से काम निकल सकता है वहाँ शब्दों के पुलन्दे रख देते हैं-वाक्प्रपंच से; शुद्धमाव से घृणा करता है । वह. इसे “वकवाद-मात्र--लोगों को अन्घकार में रखने आर विषय पर रहस्य का भावरण डालनै का एक साघधन--वतलाता है । प्रत्येक द्या में यह ( एक हो वात को दर्शनिवाले शब्दों को )) विपुलता सम्पूर्ण भाषा को सीखने को इच्छा रखनेवालों के सामने दुः:खदायक काठिन्य उपस्थित करती है, श्रौर इसका परिणाम केवल समय का नाश है” ( परिच्छेद २१, २४, रै ) । वह दोवार दोवजान अर्थात मालद्ीप और लक्षद्वीप के मूल की ( परिच्छेद २१, ८ ) और दो वार भारतसागर की सीमाग्रों के आकार को व्याख्या करता है । जहाँ कहीं उसे कपटठ का सन्देह होता है वह भट उसे कपट कहने में तनिक भी सड़ोच नहीं करता । रसायन श्रर्थात स्वर्स बनाने, इद्डों को युवक बनाने आदि के घोर व्यापार का विचार करके उसके मुख से विद्रूपात्मक शब्द निकल पड़ते हैं जो कि मेरे इस भ्रवुवाद की अपेक्षा मूल में अधिक स्थूल है ( परिच्छेद १७ ) । इस विपय पर वह जोरदार दाब्दों सें झ्पना कोप प्रकट करता है--“सोना बनाने के लिए झज्ञ हिन्दू राजाओं की लोलता की कोई सीमा नहीं”--इत्यादि । इव्कीसवें परिच्छेद में जहाँ वह एक हिन्दू लेखक की सुष्टि-वर्णन-विशयक वकवाद की श्रालोचना करता है उसके दाव्दों से घोर रसिकता टपकती है--'“'हमें तो पढले हो सात समूद्ों पीर उनके साथ साठ पृथ्वियों की गिनतों करना क्लेश-जनक प्रतीत होता था, श्रौर श्रव यह लेखक समभता है कि




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