शक्ति तत्व और प्रार्थना | Shakti Tatva aur Prarthna

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Shakti Tatva aur Prarthna by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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# श्रीमदूदेवीभागवतमें तन्नाधिकारी ण् नव ननसवणणणणणणाणणयणयायणााााययायतययणणलथाणणणणथालथापपणणणलाथणाणणणाााणाणाणणणाणाणथल शीमदुदेवीमागवतमें तन्त्राधिकारी ( छेखक--उनन्तश्री दाइरस्वामी श्रीशंकरती थजी सद्दाराज ) सनातन शास्नका उपदेश है-जो राग-देघके बद्ावर्ती होकर अन्यथावादी नहीं होते, जो “कृत्स्चस्तुतत्वविंत्‌ः हैं, जिन्होंने निखिठ वस्तु घर्मका सम्यक्‌ रूपसे साक्षात्कार किया है, ने आप हैं | “चरकसंहिता'में आया है--जिनका सर्वेविषयोंमें तर्वरहित, निश्चयात्मक ज्ञान रहता है; जो त्रिकाठदर्शी हैं, जिनकी स्मरणशक्ति कदापि नष्ट नहीं होती, जो राग-द्वेषके बशमें नहीं होते और जो पक्षपातशून्य हैं, वे आप्त हैं । यथोक्तलक्षण आप्तका उपदेश विंतर्करहित प्रमाण है, उनका कथन भ्रम-प्रमाद- विरहित होता है । जो ढोग आप्त नहीं हैं, जो मनुष्य मत्त, उन्मत्त, सूखे तथा पक्षपाती हैं, जिनके अन्त:करण दुष्ट हैं, उनके वाक्य प्रमाण नहीं होते-- तन्नातोपदेशों. नाम. आत्तचचनम्‌ । आता हावितकर्तिविभागविदो निष्सीत्युपतापदशिनश्थर । तेषासेबंसुणयोगादू यहचनं तत्‌ प्रमाणसू । अप्रसाणं पुनर्मत्तोन्‍्मत्तमूखरक्तडुशाडुए्बचनमिति । ( चचरकसंहिता» विसानस्थान ४ | ४ ) शाख्में विधासी पुरुषोंका यह विश्वास है कि झाख्र- चर्णित आप्तपुरुषप संसारमें थे, इस समय भी कहीं-कहीं विरले होंगे । जिज्ञातु--यदि ऋषियोंको आप पुरुष स्वीकार किया जाय तो उनमें इतने मतभेद होनेका क्या कारण है ? वैदिक, तास्न्रिकि और मिश्र--इस न्रिविध उपासनाके सम्बन्धर्म इतने मतान्तर रहनेमें कया हेतु है. ! उतच्र-7'सूतसंहिता'में कहा. गया है--निखिल घर्मशास, पुराण, भारत, वेदाज्ल, उपवेद, विविध आगम, बहुचिस्तारपूर्ण तवकशाख; लौकायत, चीद्ध, आहत दर्शन, अति गम्भीर मीमांसाशास्र, सांख्य और योगशाखर तथा ' सनेक-भेद-भिन्न अन्यान्य शाख्र साक्षात्‌ सनेज्ञ श्रीशंकर भगवानके द्वारा ही तैयार किये हुए हैं । सर्वज्ञ श्रीरंकर भगवान्‌ ही वेद तथा निखिल शाख्योंके आदि उपदेश हैं; विष्थु, ब्रह्मा; भणछ; वश्चिष्ठ अत्रि, मनु; कपिल, कणाद; शातातप; परादर; व्यास; जैमिनि आदि ऋषि-सुनियोंने श्रीशंकर भगवानके प्रसादसे ही उनके द्वारा उपदिष्ट चाल्नींका ही अधिकारमेदाचुसार संग्रह- संक्षेप- ) रूपसे अथवा विस्तारपूबेक व्यांस्यान किया है । सम्पूर्ण शाख्र ईश्वरनिर्मित होनेके कारण सभीका प्रामाण्य स्वीकार्य है; फिर वे परस्पर चिरुद्धार्थके प्रतिपादक होनेसे समस्त शाब्योंका ही अप्रामाण्य सिद्ध हो रहा है; सुतरां शाखसमूहके प्रामाण्य तथा भप्रामाण्यके विषयमें स्थिर सिद्धान्तपर पहुँचनेका उपाय क्या है! 'सूतसंहिता में इस प्रकारके प्रश्नके उत्तरमें कहा गया है-- अधिकारिविभेदेन मैकस्यैव सदा द्विजाः। तकँरते हि मागौस्तु न हन्तब्या सनीपिभिः ॥ अर्थात्‌ विरुद्वार्थप्रतिपादक दास्ोंका अधिकारमेद- के कारण विरोघ होनेसे सभी शाख्रोंका प्रामाण्य सिद्ध होता है; अतः एक भी मार्ग झुप्क तक॑के बसे मनीषियोंके द्वारा दन्तव्य ( बाध्य ) नहीं द्ोना चाहिये । जिज्ञाहु--भारतवर्षमें; विशेषत: बंगाल आदिें वैदिक दीक्षाके उपरान्त तान्त्रिक दीक्षाके प्रदणकी विधि बहुत कालसे 'चली आ रही है । जो तन्त्रोक्तमार्गालुसार पुन: दीक्षित होते हैं, वे वैदिक संध्या करनेके अनन्तर तान्त्रिक संध्या भी करते हैं । “पुरश्वरण-रसोछास”, प्वूहदनीलतन्त्र' आदि ग्रन्योमें उपदेश किया गया है कि परमदुलंभा वैदिक संध्याकी उपासना सम्पन करने- के पश्चाद्‌ आगम-सम्मत (तान्त्रिक ) संध्याकी उपासना करनी चाहिये--




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