शक्ति तत्व और प्रार्थना | Shakti Tatva aur Prarthna
श्रेणी : हिंदू - Hinduism
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
45.53 MB
कुल पष्ठ :
623
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)# श्रीमदूदेवीभागवतमें तन्नाधिकारी ण्
नव ननसवणणणणणणाणणयणयायणााााययायतययणणलथाणणणणथालथापपणणणलाथणाणणणाााणाणाणणणाणाणथल
शीमदुदेवीमागवतमें तन्त्राधिकारी
( छेखक--उनन्तश्री दाइरस्वामी श्रीशंकरती थजी सद्दाराज )
सनातन शास्नका उपदेश है-जो राग-देघके बद्ावर्ती
होकर अन्यथावादी नहीं होते, जो “कृत्स्चस्तुतत्वविंत्ः
हैं, जिन्होंने निखिठ वस्तु घर्मका सम्यक् रूपसे साक्षात्कार
किया है, ने आप हैं | “चरकसंहिता'में आया है--जिनका
सर्वेविषयोंमें तर्वरहित, निश्चयात्मक ज्ञान रहता है; जो
त्रिकाठदर्शी हैं, जिनकी स्मरणशक्ति कदापि नष्ट नहीं
होती, जो राग-द्वेषके बशमें नहीं होते और जो
पक्षपातशून्य हैं, वे आप्त हैं । यथोक्तलक्षण आप्तका
उपदेश विंतर्करहित प्रमाण है, उनका कथन भ्रम-प्रमाद-
विरहित होता है । जो ढोग आप्त नहीं हैं, जो मनुष्य
मत्त, उन्मत्त, सूखे तथा पक्षपाती हैं, जिनके अन्त:करण
दुष्ट हैं, उनके वाक्य प्रमाण नहीं होते--
तन्नातोपदेशों. नाम. आत्तचचनम् । आता
हावितकर्तिविभागविदो निष्सीत्युपतापदशिनश्थर ।
तेषासेबंसुणयोगादू यहचनं तत् प्रमाणसू । अप्रसाणं
पुनर्मत्तोन््मत्तमूखरक्तडुशाडुए्बचनमिति ।
( चचरकसंहिता» विसानस्थान ४ | ४ )
शाख्में विधासी पुरुषोंका यह विश्वास है कि झाख्र-
चर्णित आप्तपुरुषप संसारमें थे, इस समय भी कहीं-कहीं
विरले होंगे ।
जिज्ञातु--यदि ऋषियोंको आप पुरुष स्वीकार किया
जाय तो उनमें इतने मतभेद होनेका क्या कारण है ?
वैदिक, तास्न्रिकि और मिश्र--इस न्रिविध उपासनाके
सम्बन्धर्म इतने मतान्तर रहनेमें कया हेतु है. !
उतच्र-7'सूतसंहिता'में कहा. गया है--निखिल
घर्मशास, पुराण, भारत, वेदाज्ल, उपवेद, विविध आगम,
बहुचिस्तारपूर्ण तवकशाख; लौकायत, चीद्ध, आहत दर्शन,
अति गम्भीर मीमांसाशास्र, सांख्य और योगशाखर तथा
' सनेक-भेद-भिन्न अन्यान्य शाख्र साक्षात् सनेज्ञ श्रीशंकर
भगवानके द्वारा ही तैयार किये हुए हैं । सर्वज्ञ श्रीरंकर
भगवान् ही वेद तथा निखिल शाख्योंके आदि उपदेश हैं;
विष्थु, ब्रह्मा; भणछ; वश्चिष्ठ अत्रि, मनु; कपिल, कणाद;
शातातप; परादर; व्यास; जैमिनि आदि ऋषि-सुनियोंने
श्रीशंकर भगवानके प्रसादसे ही उनके द्वारा उपदिष्ट
चाल्नींका ही अधिकारमेदाचुसार संग्रह- संक्षेप- )
रूपसे अथवा विस्तारपूबेक व्यांस्यान किया है । सम्पूर्ण
शाख्र ईश्वरनिर्मित होनेके कारण सभीका प्रामाण्य
स्वीकार्य है; फिर वे परस्पर चिरुद्धार्थके प्रतिपादक होनेसे
समस्त शाब्योंका ही अप्रामाण्य सिद्ध हो रहा है; सुतरां
शाखसमूहके प्रामाण्य तथा भप्रामाण्यके विषयमें स्थिर
सिद्धान्तपर पहुँचनेका उपाय क्या है! 'सूतसंहिता में
इस प्रकारके प्रश्नके उत्तरमें कहा गया है--
अधिकारिविभेदेन मैकस्यैव सदा द्विजाः।
तकँरते हि मागौस्तु न हन्तब्या सनीपिभिः ॥
अर्थात् विरुद्वार्थप्रतिपादक दास्ोंका अधिकारमेद-
के कारण विरोघ होनेसे सभी शाख्रोंका प्रामाण्य सिद्ध होता
है; अतः एक भी मार्ग झुप्क तक॑के बसे मनीषियोंके
द्वारा दन्तव्य ( बाध्य ) नहीं द्ोना चाहिये ।
जिज्ञाहु--भारतवर्षमें; विशेषत: बंगाल आदिें
वैदिक दीक्षाके उपरान्त तान्त्रिक दीक्षाके प्रदणकी विधि
बहुत कालसे 'चली आ रही है । जो तन्त्रोक्तमार्गालुसार
पुन: दीक्षित होते हैं, वे वैदिक संध्या करनेके अनन्तर
तान्त्रिक संध्या भी करते हैं । “पुरश्वरण-रसोछास”,
प्वूहदनीलतन्त्र' आदि ग्रन्योमें उपदेश किया गया है कि
परमदुलंभा वैदिक संध्याकी उपासना सम्पन करने-
के पश्चाद् आगम-सम्मत (तान्त्रिक ) संध्याकी उपासना
करनी चाहिये--
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