आर्य समाज के सिद्धान्त [विशेषांक] | Arya Samaaj Ke Siddhanta [Visheshank]

Arya Samaaj Ke Siddhanta [Visheshank] by विभिन्न लेखक - Various Authors

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६] [ राय १६ नवग्यर १६४४ मुख में शांख नाक कान रसना श्और त्वचा ये पांच ज्ञानद्िये एकत्र हैं । शेप शरीर में केवल त्वचा ही एक ज्ञानेन्द्रिय हे । इस प्रकार मुख में शरीर के श्औौर श्ंगों की झपेक्षा पांच गुणा ज्ञान रहता हे । त्राह्मण जन-समाज का मुख है । उसमें समाज के क्षत्रियादि ंगों की अपेक्ता पांच गुणा अथात्‌ बहुत अधिक ज्ञान रहना चाहिये । मुख बोल कर अपने ज्ञान को दूमरों पहुं- चाता हे । ज्राह्मण समान का मुख हे । उसे झपना ज्ञान उपदेश द्वारा दूसरे लागों तक पहुंचाना चाहिये । इस प्रकार जो लोग ज्ञान के अजन और अर्जित ज्ञान के प्रचार में लगे रहते हैं वे ब्राह्मण हैं । मुख तपस्वी है । कठोर से कठोर शीत के समय में भी जब कि दम सारे शरीर को वस्त्रों से ढक लेते हैं हमारा मुख नग्न रहता है । ज्राह्मण समाज का मुख है । इसे मुख की भान्ति तप्वी होना चाहिये । से शीतोष्णादि द्वन्द्वों को सहने का अभ्यास होना चाहिये । इसी के उपल्नक्ष से उसे मानसिक क्षत्र में मान-झपमान आदि के दन्द्रों को सहने का भी अभ्यास होना चाहिये । मुख स्वार्थ-रहित श्ौर परोपकारी है । सब्चित ज्ञान को मुख अपने पास नहीं रखता । उसे आ्ौरों को सुना देता है । मुख में प्राप्त हुये भोजन को वह अपने पास नहीं रखना । वद्द उसे पचने योग्य बना कर पेट के अपेण कर देता है जहां से वह सब झंगों को पहुंचाता है । ज्राद्मण समाज का मुख है। उसे मुख की तरह स्वाथ हीन श्र परोपकारी द्ोना चाहिये । उसे झपना सब ज्ञान श्रौर अपनी सब शक्तियें समाज के उपकार में लगा देनी वाहिये । यदि मुखर्वर्था हो जाये अपने में प्राप्त हुये भोजन को बअपने में ही रक्‍्खे श्औौर कंठ से नीचे नहीं उतरने दे तो सढ़ांद होकर मुख स्वयं भी नष्ट हो जायेगा और सारे शरीर को भी नह करेगा । इसी प्रकार स्वार्था ब्राह्मण स्वयं भी नध्ठ हो जायगा शौर समाज को भी नष्ट करेगा जो मुख की भांति ज्ञानवान्‌ ज्ञान का उपदेष्रा तपस्वी स्वार्थ हीन और परोपकारी हे वह न्रा्ण है । रे. क्षत्रिय समाज की भुनाये हैं । भूजाओं में बल है। जब शरीर पर कहीं से भी किसी प्रकार का प्रहमार होता हे तो भुजायें श्रागे बढ़ कर उस प्रहार को अपने ऊपर छोढ़ती हैं । और शत्रु पर प्रहार करती हैं । प्रहार से स्वयं घायल होना स्वीकार करती हैं परन्तु शरीर के अन्य अंगों को घायल नहीं दोने देतीं । शरीर के शत्रुओं पर प्रद्दार करके उनके नाश का प्रयत्न करती हैं । इसी प्रशर जो लोग अपने भीतर बल की विशेष वृद्धि करते हैं शौर उस बल से समाज की रक्षा करते हैं वे क्षत्रिय हैं । क्षत्रिय समाज के किसी मी श्रंग पर कहीं से कोई प्रहार कोई अत्याचार नहीं होने देगा । बढ आगे बढ़ कर प्रहार को अत्याचार को रोकेगा । स्वयं कष्ट में पड़ना स्वीकार करेगा--यहां तक कि मृत्यु तक का श्ालिज्न करने को भी उद्यत रददेगा--पर समाज के किसी अंग को अन्याय--शझत्याचार से पीड़ित नहीं होने देगा । वह समाज की रक्षा और उसके शत्रुओं के विनाश के लिए सदा अपना रुघिर बहाने के लिये उद्यत रदगा । जो शरीर में भुजाश्मों की भांति समाज की अन्याय श्र अत्याचार से रक्ता करने क लिये सद। तत्पर रहता हे श्रौर इस काय्ये के लिए सदा अपनी जान दथेली पर लिये




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