भारत की श्रेष्ट लोक कथाएं | Bharat Ki Shreshth Lok-kathaen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैं महल को दान में दे चुका हूं।” पुरोहित को महल की पुरी लागत दे दी गई । अब विक्रमादित्य स्वय उस महंत में रहने के लिए गये । चिक्रमादित्य रात में महल में सोने के पलंग पर सोथे । उनके सामने लक्ष्मी जी प्रकट हुईं । लक्ष्मी जी सुन्दर वेश में थी । लक्ष्मी जी ने कहां, “महाराज, मैं अ[पके दान गौर ऊेचे विचारों से बहुत प्रसन्न हूँ । बताइए, मैं आपकी क्या रोवा करूँ ? ” विक्रमादित्य ने आँखें सोलकर देखा, उनके सामने लक्ष्मी जी सड़ी थीं । लक्ष्मी ने फिर कहा, “महाराज, मैं लक्ष्मी हूं । मैं झापके अच्छे कार्यों से बहुत प्रसन्न हूं । बताइए, में आपकी क्या सेवा कहूँ? ” विक्रमादित्य ने बड़े आदर के साथ लक्ष्मी जो को प्रणाम किया, कहा, “यदि आप मु पर प्रसन्न हैं, तो मेरे राज्य में सोने की वर्षा करें ।”” सदमी जी ने विक्रमादित्य की इच्छा पूरी की। उनके सषूर्ण राज्य में सोने की भारी वर्षा हुई । राज्य के बढ़ें-बदड़े कर्मचारी दौड़-दौड़कर दिक्रमादित्य की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने विक्रमादित्य को ख़बर सुनाई, शत अद्भुत आादचर्य ! चारों ओर सोने की चर्पा हो रही त दे विक्रमादिद्य ने बड़े ही शान्त ,भाव से उत्तर दिया, राज्य में चारों ओर ढिंदोरा पिटवा दो, जिसकी सीमा में जितना सोना बरसे बह उसे ले ले । कोई किसी दुसरे का सोना न ले ।” विक्रमादित्य की आशा का पालन हुआ। ढिंदोरा पीटकर सबको दा कादेश सुना दिया गया । . राज्य को जनता हर में डूब गई। सब लोग अपनो-अपनी सीमा में बरसे हुए सोने को बटौरने लगे । मी आारत शी भेष्ठ सोरू:रपाएं / १३




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