हिन्दू विधि | Hindu Vidhi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हिन्दू विधि जो एं से नैतिक सिद्धान्त के अनुरूप होता है जो उसका निर्देशन करता रहता है और उसमें विघ्न-बाघा नहीं पड़ने-देता। ये दोनों दार्शनिक परिभाषाएँ वास्तविकता से थोड़ी दूर मालूम होती है। प्रख्यात विधिविज्ञ होम्स ने कहा है--कानून के लिए मैं इससे बढ़ कर कोई दावा नहीं कर सकता कि वह इस बात की भविष्यवाणी है कि अदालतें वास्तव में क्या करेंगी । इस सुत्र के गर्भ में अपार अथं भरे है। इसमें एक शिष्ट समाज और उसके भीतर अदालतों का होना और उसके रचे हुए विधान का मौजूद होना मान्य है। अपरंच न तो दण्ड पर सारा बल दिया गया है और न न्याय औचित्य लोककल्याण नीति के प्रयोग का अपवर्जन हुआ है। प्रकाण्ड विधिवेत्ता सैमण्ड की रची परिभाषा यह है-- कानून यानी राष्ट्रीय विधि (सिविल ला) उन सिद्धान्तों का निकाय कहा जा सकता है जिनको राष्ट्र की मान्यता प्राप्त है और जिनका न्याय-प्रशासन में वह अपने पार्थिव बल के सहारे प्रयोग करता है यानी उन नियमों का पूज जिनको न्यायालयों की मान्यता प्राप्त है और जिन पर वे अमल करते हैँ । इस परिभाषा में न्याय व कानून को पर्यायवाची न कहकर अन्तिम को प्रथम का साधन माना गया है । कानून के भीतर प्रवेश करके न्याय उसका पथ प्रदश॑न करता है और बाहर से न्याय एक मापदण्ड बनकर कानून की परख करता हैं। यह याद रखना चाहिए कि न्याय की भावना के अतिरिक्त समाज के भीतर अन्य अनेक शक्तियाँ भी क्रियाशील रहती हैं और वे सब कानून के निर्माण में जुटकर काम करती हैं। राज्य के कानून का लक्ष्य बहुमुखी होता है और वह अस्थिर बना रहता हैं। यह कल्पना कर सकते हैं कि कानून एक अर्जुन है जो सांसारिक क्रियाकलाप रूपी द्रौपदी के स्वयंवर में सामाजिक आवश्यकताओं रूपी अस्थिर मत्स्य का लक्ष्य-वंघ कर रहा है। कानून में दण्ड की भावना निहित अवश्य है किन्तु कानून तभी प्रभावशाली हो सकता जब दण्ड के प्रयोग की आवश्यकता कम से कम अवसरों पर पड़ती हो। मनु ने कहा है-- दण्ड दास्ति प्रजा सर्वा दण्ड एवाशि रक्षति । कर दण्ड सुप्तेष॒ जागतिं दण्ड धर्म बिदुबुा ॥ कानून का लक्ष्य न्याय होता हैं जिसके रूप व सात्रा को प्रशासक वर्ग निर्धारित करता रहता है। एक पहलू से देखिए तो कानून नियमों का निराकार पुज लगता है। दुसरे पहलू से वह मानवों के विरोधी हितों में समझौता कराने वाली एक सामाजिक




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