उल्का | Ulkaa

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Ulkaa by वि.स. खांडेकर - V.S. Khandekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उच्दः श्द्‌ सी की पी सीना रागिगी में रागिणी और उत्तरा के जैसे चरित्रों को मेरी पीटी ने कल्पना- चक्नुओं के द्वारा देखा ) उत्तरा और राणिणी हमें जैसे चेतावनी दे रही थीं कि अब नई ख्री का निमांग हो चुका है । भविष्य में नारी किसी तरह को कदापि बर्दाइ्त न करेगी । अब तक नारी रँँगी थी। बेजवान थी । अब उसे जवान की प्राप्ति हो गई है । निकट भविष्य में ख्री हिरणी न रहेंगी वह तो वाधिन चनेरी | मेरे शिरोडा निवास के काछ में वामनराव जोशी के अनन्तर मराठी साहित्य के क्षितिज पर प्रो. ना. सी. फड़के जी का उदय हुआ समर देख देखते यो. फडके मह्दाराष्टीय पाठकों के अत्यन्त प्रिय साहित्यकार-उपन्या- सकार बन गए । उन के प्रथम दोनों उपन्यासों में की इन्ट्मति और निमला इन दोनों नविकाओं को उनके जीवन मैं अनत्त आपदार्ओं ने आ घेरा। उन्हें अनगिनत संकटों का मुकाबला करना पड़ा तव भी उन दोनों के ढुग्खों का स्वरूप मूलतः सामाजिक नहीं है । दौठत एव जादूगार इन उपन्यासों में अंकित ख्री जीवन का चित्र देखकर हमें आमास होने लगता दै कि नारी के पैरों में की युंखलाएँ झनझनाकरः टूट पडी हैं । अब उस में इतना आत्मविश्वास निर्माण हो चुका है कि जिस युवक को वह छझुदय से चाहता है उस के गढे मैं माठा पदनाकर उसके साथ वह वेखटके विवाहबद्ध हो सकती है और स्वाधीनता के मंदेर की सीदटियों पर.खड़ी हो अपने . अधिकारों को माँग में नारे लगाते हुए अब वह तनिक भी नहीं झ्षिझकेगी । लेकिन नारी-जीवन के यह चित्र और मेरे दोस्त की लड़की की वह छदय द्रावक-दुःख भरी-कहानी यह दोनों बातें किसी तरह आपस में मेल नहीं खाती थीं । उस अमागिनी लड़की के समान अन्य कई लड़कियाँ मेरे आँखों के सामने दिखाई देने लगीं। मेरी एक विवाहित छात्रा की राम- कहानी ऐसी ही विचित्र थी । मेरे मस्तिष्क में विचार-चक्र परिभ्रमण करने छगा। मध्यम वर्गीय स्त्री कें जीवन की ओर मैं नई इृष्टी से देखने लगा-- बयाव न




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