संस्कृत काव्य - शास्त्र में ध्वनिकार के पूर्ववर्ती आचार्यो के रसविषयक - सिद्धान्त | Sanskrit kavay shastr me Dhvnikarke ke purvavarti aacharyo ke rasvishyak - siddhant

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Sanskrit kavay shastr me Dhvnikarke ke purvavarti aacharyo ke rasvishyak - siddhant  by किश्वर जबीं नसरीन - Kishwar Jabi Nasreen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शब्दार्धो साहितौ काव्यमु की भामह निर्मित लक्ष कहकर उद्धृत कर दिया जाता है । परन्तु इस तथाकचित लक्षा मैं काव्यत्व के व्यवच्छेदक किसी भी धर्म का निर्देश नहीं है । शब्द और उर्थ के सहभाव मात्र की काव्य मना वाणी के समस्त प्रपँव को काब्य मानना है और यह ऐसी जतिव्यीप्त है जिसकी आशा भामह जैसे आचार्य मे नहीं की जा सदी दूसरी बात यह है कि शब्दार्थी सहिती काव्यम. दो पूर्ववती चिरोधी मतीं का समस्वय साधक वाक्य है ।... पका दरलैकार स्तस्या न्वैर्बहधोपीदत न काम्तमतपि निर्भुष चिभातति वरनितामुखसु 11 सुपा लिड च व्युत्पाप्त्त वाचा वॉछम्त्यलड् कृततिमू 11 तदेतदाहु सौशब्ब नार्थव्युत्पीस्तरीदृशी ।। इन काशि्काजों में जो पक्ष उपस्थित किये गये हैं. उन्हीं के समाधान के रूप में शब्दार्थी सहितौ काव्यमु आया है ।+ इन काफिकाजओं से स्पष्ट ज्ञात होता है कि भामह के समकालीन आलकािकों के दो वर्ग थे जिनमें एक अधर्लिकार की महत्व देता था दूसरा शब्दालकार की । समर्थन कुम्तक के इस कथन से भी होता है -। इत्ति केवाचिदू वाच्यमेव रचनातिक्यवमत्कारकाधिरि काव्यंम डीत 12 ४ 1- कराए 15८4 5 2- व० जी0 1८7 हुवृत्तपु




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