मुर्दों का टीला | Murdon Ka Teela
श्रेणी : साहित्य / Literature
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8.84 MB
कुल पष्ठ :
400
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शक्तिमान शासक, हे पाताल और रसातल के स्वामी, यह श्रेष्ठि मथिबंघ का पोत
है। हम उसके दास हैं, हमारी रक्षा कर . . «
तीर दिखने लगा था । सामने हो वह मधुर उपत्यका लहलहा रहो थी । उन
दिनों सिंधु देश में मरुभूमि नहीं थी 1
मणिबंध की आज्ञा से मस्तूल पर चढ़कर मल्लाहों के सरदार ने पुकारकर
आशा दी कि तीर समीप आ रहा है। श्रेप्ठि के सम्मान के अनुकूल सब लोग
अपने-अपने देष घारण करें ।
उसके अनंतर बेड़े में एक खलबली मच गई । योद्धा, व्यापारी भौर स्त्रियाँ
अपने श्रेष्ठ से श्रेष्ठ आमूषण और वस्त्र पहनने लगे । केवल काले दास और दासियों
ने कोई प्रयत्न नहीं किया । अकेला अपाप नामक काला दास अपने दैत्य से शरोर
पर एक सूत का टुकड़ा डालकर विशाल भुजदंड पर ताँबे का बाहुबन्थ बाँधकर हूँसता
हुआ लौट आया । उसने एक कोमल गोरी दासी को हाथों पर उठा लिया और एक
थार हुवा में घुमाकर फिर उसे नीचे रख दिया । दासी में क्रोव से उसे गाली दी ।
दर्शक ठठाकर हँस पड़े । दासी भी हेंस दी । काले गोरे का यह स्नेह देख कर उनको
अत्यन्त आमभन्द आता था । वास्तव में अपाप में इतना पौरुष था कि हेका उसके अति-
रिक्स किसी और की सोच भी नही सकती थी । उस दैत्य की सुलना में हेका का छोटा-
सा मुलायम शरीर अत्यन्त कोमल प्रतीत होता था । कल तक नीलूफ़र और हेका की
समानता थी, आज नीलूफ़र ने जिस अपरूप यौवन से मणिवंध को पराजित किया था,
वैसे ही यौवन को हेका स्वयं उस हब्शी दैत्य के अपार बल के सम्मुख हार गई थी ।
अपाप का हृदय बालकों का-सा था । उसे जब क्रोध आता था तब वह पु से भी
अधिक निर्दंय हो जाता था, किन्तु हेका के सम्मुख वह एक पालतू जानवर की तरह
सिर शुका देता था । आज स्वाभिनी बर्नकर भी नीलूफ़र हेका को भूली नहीं थी ।
दोनों में अगाष स्नेह था ।
हेका नीलूफर के पास आ गई । नीलूफर अभी भी अपाप की उस क्रीड़ा पर
हँस रही थी । हेका ने तिनककर कहा--'संचसुच यह अपाप है, अंधकार का देत्य ! *
नीलूफ़र ने हेसकर कहा--'हेका ! अंधकार के साय रहने के कारण प्रकादा
का रूप कितना खिल उठता है 1”
हेका लाज से मुस्कराई 1 नीछूफर ने फिर कहा--अच्छा ! और तब मुझये
रो-रोकर कहा था कि अपाप के दिना हेका कभी भी नही जी सकेगी । तब मेने व्यर्थ
श्रेप्ठि की अनुकम्पा ग्रहण की ? यदिं शरेप्ठि उसको नही खरीद लेता तो वया तुम दोनों
साय रह सकते थे ? ”
हेका ने नीछूफर के चरणों को पकड़कर कहा--'स्वामिनी ! '
नीलूफर लज्जित हो गई । उसके गालों पर एक लाल छाया झलमला उठी ।
यह सत्य है कि वह आज स्वामिनी है । आज उसे भी इन गुछामों के प्रेम में दिल-
चस्पी लेने का कोई कारण नही रहा है। यदि कोई उच्च-दंदा की स्त्री होती तो कभी
मु्दी का टडीला/ ७
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