राजा रिपुमर्दन | Raajaa Ripumardan

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Raajaa Ripumardan by हर्षनाथ - harshnath

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वध राजा रिपुमदंन थे। जब कभी कोई पेंचीदा मामला आता था शहर में कलक्टर गथवा अन्य किसी अधिकारी से मिलना होता सम्बन्धी जमीदारों के यहाँ जहाँ पिताजी नहीं जा पाते थे वहाँ पिताजी के प्रतिनिधि के रूप में जाते थे । फारसी श्र उदूं के ्रच्छे ज्ञाता थे नागरी भी जानते थे । सारा काम काज वे उदे में ही करते थे | में ्रक्सर उनकी गोद में बैठ जाता था । कितना भी भल्लाया में रहता पर जैंसे ही उनकी गोद में पहुँचता शान्त हो जाता था । वह गोद मुक्के बहुत ही प्रिय थी । अपनी जमीदारी में मेंने पूण श्रधिकार मोगा है । अँग्रेजी और कांग्रेसी अधिकारियों का श्रादर-सम्मान प्राप्त किया है । जहाँ हमारे जैसे जमीदारों की पहुँच ही न हो वहाँ भी मैं ने सम्मान के साथ रसाई पायी है पर जो द्यात्म -संतोष शोर सुख मुझे दीवानजी की गोद में वैठने से उस समय मिलता था वह मुझे श्रन्यत्र ट्मर ही रहा । पिताजी के जीवन-काल में ही जब मैंने जमीदारी का का कारवार सम्हाल लिया तब दीवानजी नब्वे पर पहुँच रहे थे । तब वे दीवानी का काम-काज सम्हालने में श्रसमथ हो गये थे फिर भी मेरे लिये दीवानजी उसी श्रादर श्रौर श्रद्धा के पात्र रहे । पिताजी को मैं भय तर आशंका की दृष्टि से देखता था । तनख्वाह तो उन्हें तीस रुपये ही मिलती थी किन्ठ जगह-जमीन श्रौर सभी सुविधाएँ उन्हें जमीदारी की ओर से मिली हुई थी ।.. दीवानजी के सिवा दर्जनों कारिन्दे श्र मुन्शी थे जिनकी श्रोर मेरा कोई झुकाव नहीं था । वे मुझे सरकार हुजूर शाहजादा साहब कुँवर साहब कहकर पुकारते थे श्र उनकी शोर उपेक्षा श्र हिकारत से देखकर में नजर फेर लेता था । उस समय मी मेरी बाल बुद्धि ने इस तथ्य को समक लिया था कि रईस-जमीदारों के लड़कों को हर ऐरे-गेरे हासे बात नहीं करनी चाहिये । इससे उनका रुतबा घट जाता है । फिर




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